पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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वसंत पंचमी: ज्ञान, कला और संस्कृति का उत्सव….
हम आधुनिक हैं…
न मन में उमंग,
न तन में तरंग
न जीवन में उछंग,
कहीं खो गया है वसंत…।
हम आधुनिक हैं…
आधुनिकता की आपा-धापी में
भौतिकता की आँधी में,
कहीं खो गया है वसंत…।
सरसों आज भी फूलती है,
अमराई में आज भी बौर लगते हैं
फागुनी बयार आज भी मादक है,
बागों में आज भी कोयल कूकती है
परंतु हमारी संवेदना मृतप्राय: हो गई है
कहीं खो गया है वसंत…।
हम आधुनिक हैं…
इक्कीसवीं सदी में हैं
निरंतर दौड़ रहे हैं,
अनवरत् भाग रहे हैं
देश में, विदेश में,
गली में, मोहल्ले में
प्रकृति से दूर,
कांक्रीट के जंगलों में
सुख-सुविधा की खोज में,
कुछ खोया है… तो कुछ पाया है
कहीं खो गया है वसंत…।
हम आधुनिक हैं…
किसको फुर्सत है!
देखने की-आम में बौर आ गए,
या सरसों फूल रही है
अब तो बारहों महीने,
फ्रूटी-माजा हमारे हाथों में है
ए.सी. कूलर के आगे,
भूल गई फागुनी बयार
मोबाइल, लैपटॉप, आईपॉड के नशे में,
कोयल की कुहू-कुहू का क्या है अर्थ…!
कहीं खो गया है वसंत…।
हम आधुनिक हैं…
वसंत ने भी अपना चोला बदल लिया है,
अब वह ‘वैलेन्टाइन-डे’ बन गया है
यदि हम वसंत मनाएंगें,
तो पुरातन पंथी कहलाएंगें
किसको याद है,
कि माँ सरस्वती का पूजन करना है
अब तो मात्र खानापूर्ति करना है,
कहीं खो गया है वसंत…।
हम आधुनिक हैं…
वसंत मनाते हैं भी तो,
किटी पार्टियों में या
सभा सोसायटियों में,
क्या होगा पीले कपड़ों से…
मदनोत्सव तो हम मनाएंगें ही,
लेकिन नाम होगा ‘वैलेटाइन-डे।’
कहीं खो गया है वसंत…,
हम आधुनिक हैं…॥