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चीते आ गए, पर घटते जंगल भी बचाएं

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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क्या देश में सर्वाधिक जंगलों वाला मध्यप्रदेश भविष्य में ‘चीता राज्य’ कहलाएगा या नहीं इसका जवाब तो आगे चलकर मिलेगा, लेकिन फिलहाल नामीबिया से आ रहे चीतों के स्वागत में नगाड़े बज रहे हैं। इस मुबारक घड़ी में शुभकामना यही है कि चीते भी इस धरती को अपना मानकर बसेरा करें और उनकी आबादी दिन दूनी बढ़े, जैसे कि काफी हद तक मप्र में शेरों की बढ़ी है, पर अहम सवाल यह है कि प्रदेश में सिंहों, शेरों, तेंदुओं और चीतों की आबादी भी बढ़ने की उम्मीद है, लेकिन राज्य में जंगल घटते जा रहे हैं, उसका क्या ? अगर जंगलों की अवैध कटाई और कार्बन उत्सर्जन का यही हाल रहा तो ये जंगली प्राणी जाएंगे कहां, रहेंगे कहां ? आलम यह है कि प्रदेश की राजधानी भोपाल के आसपास के जंगलों के शेर अब शहर में आसरा तलाशने लगे हैं, क्योंकि इंसानों ने उनके कुदरती ठिकानों पर अतिक्रमण कर लिया है।
बहरहाल, खुशी की बात यह है कि, फिर चीते मप्र की धरती पर कदम रख रहे हैं। इस देश में आखिरी चीता शिकारियों के ‘शौक’ के चलते १९४७ में ही मार दिया गया था। उसके बाद चीते को लोग सिर्फ उसकी बेमिसाल रफ्‍तार के लिए ही याद करते रहे हैं। चीता ८० से लेकर १२८ किमी प्रति घंटे की रफ्‍तार से दौड़ सकता है। ‍चीता शब्द संस्कृत के शब्द चित्रय से बना है, जिसका अर्थ होता है चित्रित या विचित्र। चीते के शरीर पर गुलाब के माफिक चकत्ते और कुछ चीतों में काले पट्टे उसे तेंदुए से अलग करते हैं। वह तेंदुए से ऊंचा भी होता है।
प्राणी शास्त्र में चीते का नाम ऐसीनोनिक्स जुबेटस है। चीते अब अफ्रीका के कुछ देशों और एशिया में ईरान में ही बचे हैं। इस मायने में भारत में चीतों के पुनर्वास का यह पहला और महत्वाकांक्षी अंतर्महाद्वीपीय कार्यक्रम है, जिस पर दुनिया की निगाह है। हालांकि, इसकी पहल २००९ में तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश ने की थी। काफी पहले ईरान से चीते लाने की कोशिश श्रीमती इंदिरा गांधी के जमाने में हुई थी, लेकिन ईरान में तत्कालीन शाह की गद्दी छिनने से परवान नहीं चढ़ी।
मोदी सरकार और शिवराज सरकार को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने इस चीता स्थानांतरण परियोजना को क्रियान्वित करने में पूरी दिलचस्पी दिखाई। हालांकि ये मेहमान चीते हैं, इसलिए भारत और खासकर कूनो अभयारण्य की जलवायु में कैसे खुद को ढालेंगे, यह देखने की बात है। सब कुछ योजना के अनुरूप चला तो ५ साल में चीतों की तादाद ५०० को पार कर सकती है।
कारोबारी यह मानकर खुश है कि चीतों के साथ पर्यटन का धंधा भी फलेगा, फूलेगा। जंगल के शांत जीवन पर इंसानी मौज-मस्ती हावी होगी। इसकी कीमत भी जंगल को ही चुकानी होगी। आश्चर्य नहीं कि लोग चीते देखने के लिए बड़ी तादाद में आएं। आर्थिक गतिविधियां बढ़ने से स्थानीय लोगों की आय बढ़ सकती है। कहीं ऐसा न हो कि चीतों की चाह में हमारा पर्यावरण ही भरभराने लगे।
इससे बड़ी चिंता यह है कि मध्यप्रदेश में एक तरफ अभयारण्यों, राष्ट्रीय उदयानों और सुरक्षित वन क्षेत्रों की संख्या लगातार बढ़ रही है, वहीं दूसरी तरफ वन क्षेत्र घटता जा रहा है। अभी भी देश में सर्वाधिक वन क्षेत्र मध्यप्रदेश में ही है, लेकिन मप्र में जारी अवैध कटाई, कार्बन उत्सर्जन और जंगल की आग की वजह से घट रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक २०२१ तक राज्य में ६४५ वर्ग‍ किमी वन क्षे‍त्र घटा है। हालांकि, यह कुल वन क्षे‍त्र १ फीसदी से भी कम है,पर आगे क्या होगा, इसका गंभीर संकेत है। इस पर कोई रोक नहीं लग रही है। वनों के कटने और प्राकृतिक आवासों के मिटने से जंगली प्राणी बेघर होने लगे हैं। हम जंगल का विस्तार नहीं कर सकते तो कम से कम जो हैं, उन्हें तो बचा लें। वरना इतने प्राणियों को रखेंगे कहां ? और अब तो चीते भी आ गए हैं।

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