कवि योगेन्द्र पांडेय
देवरिया (उत्तरप्रदेश)
*****************************************
नई-नई ढपली,
नई-नई शुरुआत
आवाज में नजाकत भी नई-नई है,
दो-चार भजन
और कुछ हृदय विदारक गीत,
कुछ दिन रटकर
याद किया हुआ है।
हमारी रेल यात्रा का,
एक यह भी हमसफर है
ढपली पे उंगलियां फिराते हुए,
गाने की ताल मिला रहा है
गाना गाकर कुछ पैसे कमा रहा है।
क्या और कोई काम नहीं कर सकता ?
रेलगाड़ी में गाने गाकर कितना कमाता होगा ?
देह से तो हृष्ट पुष्ट है,
फिर ये हाथ फैलाकर मांगने का क्या मतलब!
कहीं कोई काम करके,
शान से दो पैसा कमाता
मगर नहीं,
हाथ फैलाना ही इनका काम है
मेहनत करना हराम है।
या फिर इनकी तकदीर का,
ये भद्दा मजाक है!
यही सोचते-सोचते,
मेरा गंतव्य स्थान आ गया।
रेल रुकी,
और मैंने ढपली वाले की ओर
एक नजर देखा, फिर,
रेलवे स्टेशन पर उतर गया॥