ललित गर्ग
दिल्ली
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‘विश्व सहनशीलता दिवस’ (१६ नवम्बर) विशेष
शांति, लोकतंत्र-व्यवस्था और सतत विकास प्राप्त करने के लिए सहनशीलता एक आवश्यक शर्त है। इंसान, विशेषतः युवा पीढ़ी में जल्द उत्तेजित हो जाने की समस्या तेजी से बढ़ रही है। ‘गर्म खून’ और ‘लड़कपन’ कह कर युवाओं में बढ़ रही इस दुष्प्रवृत्ति को हम नजरअंदाज कर देते हैं, लेकिन ये दूसरे को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। न केवल युवापीढ़ी बल्कि आज की नेतृत्व शक्तियां भी असहनशील होती जा रही है। लम्बे समय से चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध इसी असहनशीलता का परिणाम है। दरअसल, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं, बदलती जीवन-शैली और सामाजिक माहौल की वजह से लोगों के अंदर सहनशीलता लगातार घटती जा रही है। सामाजिक माहौल ना बिगड़े और दुनिया के लोग एक दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहें, इसी संकल्प के साथ ‘अंतरराष्ट्रीय सहनशीलता दिवस’ मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने १९९६ में औपचारिक तौर पर प्रस्ताव पारित कर इस दिवस की शुरुआत की थी।
सहनशीलता दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई ?, क्योंकि आज आदमी के दिल-दिमाग पर खींची अलगाव और दुराव की रेखाएं उसी के वक्षस्थल पर आरियां चला रही हैं। आतंक की दहशत में सिसकता जीवन नई संजीवनी की अपेक्षा में दिन काट रहा है। अबाध गति से प्रवाहमान जीवन की धारा अवरुद्ध-सी हो गई है। धन, जमीन और धातु के टुकड़ों से अपने बड़प्पन को प्रदर्शित करने वाला व्यक्ति यह भूलता जा रहा है कि जीवन की सफलता और सार्थकता इनसे कभी भी हासिल नहीं की जा सकती। हिंसा, आतंक और अलगाव की ये आड़ी-तिरछी रेखाएं जीवन रूपी हाशिए को नहीं, बल्कि पूरे जीवन पृष्ठ की गरिमा को लील रही हैं। धन और शोहरत की उदग्र, आकांक्षा ने व्यक्ति की सोच को बौना बना दिया है। ओज, तेज और वर्चस्व का महास्रोत सूखता जा रहा है। इन ज्वलनशील परिस्थितियों ने जीवन लक्ष्य के मानकों को भी तहस-नहस कर दिया है। ऐसे नाजुक और गंभीर दौर में सहनशीलता को नई दिशाएं देनी होगी। जीवन की यथार्थ अनुभूति के लिए सहिष्णुता की प्रायोगिक चेतना को जन्म देना होगा, क्योंकि व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़ा एवं युद्ध की स्थितियां बनना आम हो गई है।
टकराव, अलगाव, दुराव आदि तत्व जीवन के रस का शोषण कर रहे हैं। नीरस बना जीवन कदम-कदम पर कुंठा, निराशा और हीन भावना से ग्रस्त बनता जा रहा है। इन अवांछनीय तत्वों को हटाने के लिए कुछ करना होगा। कुछ करने का सोचें, इससे पूर्व यह चिंतन करना अपेक्षित होगा कि ये परिस्थितियां इतनी बलवती कैसे बनी ? कहीं हमने तो ही इन्हें आमंत्रित नहीं किया। निश्चित रूप से हमारे भीतर पलने वाली किसी एक कमजोरी ने इन सबके साथ साठ-गाँठ कर ली है। आज आम आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी है-सहिष्णुता का अभाव। जब तक जीवन में सहिष्णुता का विकास नहीं किया जाएगा, तब तक जीवन को गरिमामय भी नहीं किया जा सकेगा। बच्चों से लेकर बड़ों तक के जीवन से तिरोहित होने वाली इस सहिष्णुता ने कई समस्याओं को जन्म देकर जीवन को निस्तेज और रसहीन बना दिया है।
व्यक्ति अगर चाहे कि मेरे जीवन में सुख-शांति, समृद्धि, स्वस्थता, संतुलन और समरसता रहे तो सहनशील बनकर जीना होगा। यह सार्वभौम और सनातन तथ्य है और प्रत्येक व्यक्ति के लिए मंगलकारक है। सहिष्णुता की ओर उठा हर कदम अनगिन सफलताओं को प्राप्त करता हुआ आगे बढ़ता है। अव्यक्त को व्यक्त, अकल्पित को कल्पित और अघटित को घटित कर जीवन को संक्लेश से मुक्ति दिलवाता है। जिसने जीवन में सहन करना सीख लिया, वह हर जंग जीत सकता है। सहिष्णुता जीवन शक्ति का पर्याय है।
विश्व के देशों में सहनशीलता का निरंतर क्षरण हो रहा है। बात विश्व की ही नहीं, राष्ट्र एवं समाज की भी है, हर ओर छोटी-छोटी बातों पर उत्तेतना, आक्रोश, हिंसा के परिदृश्य व्याप्त है।
प्राचीन काल और मध्य युग में अहिंसा और सहिष्णुता पर जो किताब मनु, बुद्ध, महावीर और नानक ने लिखी, उसी को नई इबारत में गांधी जी ने लिखा। किसी भी उद्देश्य के लिए किसी भी पक्ष द्वारा हिंसक मार्ग के अनुसरण को उन्होंने यह कह कर नकारा कि सात्विक दृष्टि से जब सब एक ही (परमात्मा) के अंश हैं, आस्था एक ही है तो फिर विद्वेष, प्रतिहिंसा और प्रतियोगिता क्यों ? जिस समाज के पास वेदवाणी और गुरुवाणी से लेकर गांधी तक अहिंसावादी विचारों की धरोहर हो, वहां इतनी असहिष्णुता और इतनी हिंसा क्यों ?
सहिष्णुता तभी कायम रह सकती है, जब संवाद कायम रहे। सहिष्णुता इमारत है तो संवाद आधार, लेकिन प्रतिस्पर्धा और उपभोक्तावाद के जाल में फंस चुके इस विश्व में यह संवाद लगातार टूटता जा रहा है। असहिष्णुता शांति एवं सह-जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी घातक है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि चिंता ‘चिता’ समान और क्रोध ‘विनाश’ की पहली सीढ़ी होता है। जल्दी उत्तेजित होने वाले जहां अन्य लोगों को नुकसान पहुंचा रहे हैं तो खुद की सेहत से भी खिलवाड़ कर रहे हैं।
विशेषज्ञों के मुताबिक, सही शिक्षा के अभाव में नई पीढ़ी में मानसिक सहनशीलता कम हो रही है। संत कबीरदास से लेकर गुरुनानक, रैदास और सुन्दरलाल आदि संतों में समाज में सहिष्णुता का भाव उत्पन्न कर सामाजिक समरसता को जन-जन तक पहुंचाया। इससे समाज में सही अर्थों में सहिष्णुता की भावना बलवती हुई।
सहनशीलता हमारे जीवन का मूल मंत्र है। सहिष्णुता ही लोकतंत्र का प्राण है और यही वसुधैव कुटुम्बकम, सर्वे भवन्तु सुखिनः एवं सर्वधर्म सद्भाव का आधार है। इसी से मानवता का अभ्युदय संभव है।