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पढ़ाई के साथ खेल भी आवश्यक

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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जब हम छोटे थे,तब दौड़ा-दौड़ी के बाद सबसे पहले लूडो खेलना शुरू किया जो आज भी उम्र के इस पड़ाव में उतने ही उत्साह से खेल लेते हैं। जब कुछ सयाने हुए तब कैरम खेलने लग गए। कुछ और सयाने हुए,तब पांव से गेंद एक दूसरे की तरफ फेंकने लगे। जब चार-छः जने हो जाते तो २ दल बना फुटबाल की तरह मकान के प्रांगण में खेल लेते थे,क्योंकि हमारे माईतों ने हमें यह बताया कि, खेल एक तरह की शारीरिक क्रिया है यानि ऐसा खेल खेलो,जो तुम्हें स्वस्थ बनाए। इसी सलाह को सिरमाथे रख हमने कबड्डी खेलना शुरू किया यानि उस छोटी उम्र में भी हमने हमेशा ध्यान रखा कि हमें खेलों के माध्यम से स्वस्थ रहना है। इसलिये जब हमें मैदान में खेलने जाने की अनुमति मिल गई,तब हमने लंबी दूरी की दौड़ को अपना लिया।
जब क्रिकेट के खेल में खिलाड़ियों पर पैसों की बरसात होते देखी और यह भी कि,कैसे क्रिकेट खिलाड़ियों के कारण देश को प्रसिद्धि मिली,और देशवासी भी इन खिलाड़ियों को सम्मान देने लगे, तब लोगों की सोच में बदलाव होना शुरू हुआ। तब हमें यह समझाया गया कि अब तुम बड़े हो गए हो इसलिए हमेशा एक तरह का ही खेल खेलने के बजाय अन्य खेलों जैसे चिड़िया-बल्ले का खेल (बैडमिंटन),टोकरीनुमा जाल में गेंद डालने वाला खेल (बास्केटबॉल),डंडे और गेंद का खेल (हॉकी), वगैरह पर भी ध्यान दो। तब हमने बैडमिंटन खेलने की व्यवस्था तो मकान के प्रांगण में कर रात को खेलना प्रारम्भ कर दिया,जबकि हॉकी मैदान में खेलने लगे।
जब विद्यालय में दाखिला ले लिया,तो बास्केटबॉल वहाँ सहपाठियों के साथ खेलना शुरू किया, क्योंकि बास्केटबॉल की सुविधा विद्यालय में सहज उपलब्ध थी,लेकिन मेरे शरीर की सरंचना इस प्रकार की रही कि मुझे हॉकी एवं बास्केटबॉल के लिए हमेशा दल में अतिरिक्त खिलाड़ी के रूप में ही शामिल होना पड़ता था,जो मुझे हमेशा खटकता था। फुटबाल में ऐसी बात नहीं थी,लेकिन उसमें अभ्यास बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है,जो मैं कर नहीं पाता था,इसलिए वह मेरा शौकिया खेल ही रहा है। हाँ,इस बीच मैंने चौंसठ खानों की बिसात वाला खेल (शतरंज) सीख लिया,लेकिन यहाँ भी उतनी रुचि वाला कोई साथी मिलता तभी खेल पाता था,क्योंकि इसमें समय व खटाव दोनों आवश्यक है।
बाद में जब मैंने महाविद्यालय में दाखिला लिया तब वहाँ महाविद्यालय भवन के सामने एक बड़ा-सा तालाब था,जहाँ तैराकी सिखाई जाती थी। वहाँ नए-नए बने सहपाठी तैराकी सीखने लगे। उन सबसे तैराकी के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला। घर से आज्ञा ले वहाँ तैराकी सीखने के लिए बात तो कर ली,लेकिन उसके लिए मुझे सबेरे कक्षा शुरू होने के ६० मिनट पहले पहुँचना आवश्यक हो गया। कुछ महीनों तक तो सब ठीक-ठाक चलता रहा और कुछ हद तक मैनें तैराकी भी सीख ली,पर बाद में व्यवधान आ गया और तालाब की तरफ जाना ही छूट गया।
महाविद्यालय की पढ़ाई पूरी होते ही मेरी नौकरीb लग गई। इस कारण घर लौटते-लौटते काफी देर हो जाती और थकान भी रहती। इससे मुक्ति पाने के लिए कुछ साथियों को शतरंज खेलना सिखाया। फिर रात को उनके साथ अभ्यास करने लग गया, क्योंकि प्रदेश स्तर की प्रतिस्पर्धा की सूचना अखबारों के माध्यम से जानकारी में आई हुई थी, इसलिए इसमें भागीदारी की इच्छा जागृत हो गई। इस कारण मैंने अपने कार्यालय से प्रतिस्पर्धा में भाग लेने के लिए अनुमति माँगी,जिसे न केवल स्वीकृति दी गई,बल्कि प्रतिस्पर्धा में भागीदारी के लिए मुझे कार्यालय से कुछ सुविधा भी दी गई।इस प्रतिस्पर्धा में भागीदारी निभाने का लाभ यह हुआ कि,खेल जगत से सम्बन्धित काफी लोग मुझे पहचानने लग गए,साथ ही कुछ नाम भी कमाया।
हममें से अनेक ने अपने बड़े-बुजुर्गों से अक्सर
‘पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब,खेलोगे-कूदोगे तो होओगे खराब…’ वाली बात कभी ना कभी सुनी होगी। सोचें..समझें…विचार करें…तो ये बात सही भी लगती है,लेकिन बीते कुछ वर्षों में जिस हिसाब से खेलों में पैसा और सम्मान खिलाड़ियों को प्राप्त होना शुरू हुआ है,इसलिए अब यह बात अनुपयुक्त लगने लगी है।
मेरे अनुभव का निष्कर्ष यही है कि पढ़ाई के साथ-साथ खेल भी आवश्यक है,क्योंकि स्वस्थ शरीर और दिमाग काे विकसित करने के लिए खेल महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। खेल न केवल एक शारीरिक क्रिया है,बल्कि मानसिक क्रिया भी,यानि यह जीवन का एक आवश्यक अंग है। लगातार पढ़ाई या कार्यालय में कार्य पश्चात जो तनाव हो जाता है,उसमें खेल उस तनाव को दूर करने में बहुत सहायक होता है। कुल मिलाकर खेल हमारे अंदर प्रेरणा,साहस,अनुशासन और एकाग्रता लाने का कार्य करता है।

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