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बेघर पंछी

एम.एल. नत्थानी
रायपुर(छत्तीसगढ़)
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सुबह की भोर में उठकर,
टक-टक की आवाज थी
खिड़की पर एक पंछी ये,
चोंच लड़ाने नासाज थी।

पंछी चहचहाते ही चोंच,
से नक्काशी उकेर रहा है
अपने घोंसले की तलाश,
में तिनका बिखेर रहा है।

जब से जंगल कटने लगे,
ये पंछी बेघर होने लगे हैं
बिजली के तारों या ऊंचे,
टॉवरों पर ही रहने लगे हैं।

कांक्रीट के घरों ने इनके,
घोंसले ही उजाड़ दिए हैं
आधुनिकता की दौड़ में,
प्रकृति को पछाड़ दिए हैं

बड़ पीपल नीम गूलर ही,
पर घोंसले भूलने लगे हैं
छतों पर गमलों में पौधों,
से खुद घर सजने लगे हैं।

पुण्य कमाने छत पर यह,
जो थोड़ा दाना-पानी है।
आशियाना ढूंढ़ते पंछी ये,
जब करते आना-कानी है॥

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