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बोझ ढोती स्त्रियाँ

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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बोझ ढोती स्त्रियाँ,
तन से ज्यादा, मन से थकी होती हैं
जैसे ही लांघती है घर की चौखट,
गहन विचारों की चादर से
ढक लेती हैं अपनी संवेदनाओं को,
अंतर्मन की परतों में लिपटी
उनकी ख्वाहिशें…
अपनों के बंद दरवाजे में,
सिसकती, बिलखती, घुटती, कचोटती
केंचुली की भांति, रौंद जाती हैं…
और…
सौंदर्य, जो देह से उन्मुक्त होकर,
ले लेता है अनचाहा विराम।

बोझ ढोती स्त्रियाँ,
घर के कामों से मुक्त होकर
लग जाती हैं, अपनी व्यग्रता को,
दूर करने…
सजने, संवरने की बाह्य क्रिया से स्वछंद,
जीवन पथ पर चलती हैं
मूक, अकेली…
बंधी रहती हैं, जंजालों के तारों से,
रुंधे हुए स्वर में जब गाती हैं
तो… व्यथा की लहरों के संग,
बह जाते हैं उनके अरमान।

बोझ ढोती स्त्रियाँ,
संघर्ष से ज्यादा…
चित्त से विचलित होती है,
चेतना जो नवीन होने से पहले ही
जुगनुओं की तरह टिमटिमा कर,
मिट जाती है…
शून्य से टकराने की जिद में,
कर लेती हैं तारों से विद्रोह
नियति के चक्रव्यूह से लड़ती,
टकराती…
अपनी ही प्रतिध्वनि में,
हो जाती हैं लीन…।
बोझ ढोती स्त्रियाँ,
भार से नहीं, भावों से बंध जाती हैं॥