प्रीति तिवारी कश्मीरा ‘वंदना शिवदासी’
सहारनपुर (उप्र)
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मत बन तू छलनी के जैसा सार बहा दे असार धर,
जैसे दुर्जन गुण को त्यागें अवगुण राखें संभार कर।
सांचे भक्त हों सूप के जैसे कूड़ा बाहर सार अंदर,
माया कूड़ा सार प्रभु जी प्रभु गुण गाऐं पुकार कर।
जो भी मुक्त न होना चाहें माया-मोह के बंधन से,
आसक्ति संसार में कर के अंत में रोऐं दहाड़ कर।
जिनके न हों बंधु-बांधव लाड़ लड़ाऐं पशुओं से,
प्रभु जी से न लाड़ लड़ाऐं मन भटके संसार भर।
छोटा बालक न जाने है भोग, प्यार क्या रत्ती भर,
विषयासक्त प्रभु-प्रेम न जाने तारें सबको उबार कर।
प्रभु प्रेम मन नहीं सुहाता चसक कामिनी, कंचन की,
भजन-कीर्तन कैसे सुहावे जीवित प्रभु को नकार कर।
काल गंवा दे जम के रे तू भक्ति-भजन को करियो न,
काल है अजगर निगलेगा जी बड़े प्रेम से डकार कर।
विनती है ये ‘शिवदासी वंदना’ कर प्रभु वंदन जी भर के,
मानुष का तन प्रभु मिलन को तू सोया है पैर पसार कर।
मत बन तू छलनी के जैसा सार बहा दे असार धर।
जैसे दुर्जन गुण को त्यागे अवगुण राखें संभार कर॥
