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मात्र इतनी अपेक्षा-जनता को गुमराह न करें

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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कांग्रेस कहती है कि वर्तमान सरकार की नीति है ‘फूट डालो और राज करो’, लेकिन इतनी संजीदा बात आराम से यह कह कर भूल जाना कि ‘कश्मीरी तो ३९९ ही गए,जबकि मुस्लिम १५ हजार। यह बात लिखने वाले भूल गए कि बच्चों की तरह लूडो तो १९४७ की कांग्रेस सरकार खेल चुकी है। अपनी ही भूमि देकर सन् १९४७ में लाखों-करोड़ों लोग बेघर हुए,हत्याएँ सरेआम हर गाँव,हर शहर के गली-चौराहों पर हिन्दुओं की हुई,लूटपाट के अलावा माता-पिता के सामने उनकी बहू-बेटियों को निर्वस्त्र कर मारा गया,पुरुषों के गले काट दिए गए। कई लोगों के परिवारों का नामोनिशान मिट गया। बसी-बसाई सभ्यता व संस्कृति की विनाश लीला किसी महाभारत से कम नहीं आँकी जा सकती।
कांग्रेस अपने समय में सत्ता चलाने के लिए देश का बँटवारा कर चुकी है। रही बात वर्तमान सरकार की, तो अगर कांग्रेस की नीति अनुसार ‘बाँटो और राज करो’ के आधार पर यह सरकार चल रही है,तो यही मान लेने में कोई गुरेज़ नहीं कि तो फिर हो जाए एक ओर बँटवारा। वैसे भी भारत देश की सीमाएँ सिकुड़-सिकुड़ कर कुछ ही क्षेत्रफल तक की ही तो रह गईं हैं। कांग्रेस को यदि चॉकलेट खाना अधिक पसंद है तो देश की मुठ्ठी भर जनता को गुड़,प्याज़ या नमक से ही रोटी खाना पसंद है। सत्ता के लालच में सभी अंधे के हाथों बटेर लग जाने की प्रतीक्षा करते हैं। बेरोज़गारी क्या समकालीन प्रधानमंत्री स्वयं बच्चे पैदा कर बढ़ा रहे हैं क्या ? क्या मंहगाई समकालीन प्रधानमंत्री अपने जन्म के साथ लाए हैं ? देश में विकास की खेप को रोकने व भ्रष्टाचार की गुड़िया क्या समकालीन प्रधानमंत्री ने ही उत्पन्न की है ? और तो विभाजन के पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्रियों की ही उपज है क्या ?
ऐसा क़तई नहीं है,वास्तव में कांग्रेस ने सत्ता रहते हुए अपनी राजनीतिक व्यवस्थाओं में परिस्थितिजन्य परिवर्तन उचित समय पर नहीं किया। अगर किया भी तो अधिक विलम्ब से किया या सत्ता की अपेक्षा को महत्वकांक्षा बना कर किया। वरना इतने शिक्षित नेताओं को अपने समय में बढ़ रहे मुद्दों को ठंडे पानी में रूह आफ्जा मिलाकर पीने की आवश्यकता नहीं पड़ती। राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानने में भला किसे संकोच होता ? ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ तो पंडित नेहरु का सपना भी था। लोकतंत्र में सत्ता,जनता की आवाज से ही सुचारु रूप से चल सकती है।
‘कश्मीर फाइल्स’ की भाँति अनगिनत रोंगटे खड़े कर देने की घटनाएँ पाँचवी सदी से ही घटित हो रही हैं। इस संबंध में हज़ारों की तादाद में विभिन्न भाषाओं के साहित्यकार और इतिहासकार पुस्तकों में लिख कर भविष्य को सौंप चुके हैं। क्या वे लोग गलत लिख गए हैं ? वास्तव में,समस्त जाति, समुदाय व धर्म के शिक्षित वर्ग के उच्च श्रेणी के लोगों को अब परहेज़ करना चाहिए। अब जनता को बैलगाड़ियों की बजाए आधुनिक आविष्कारों की आदत हो चुकी है। समयानुसार परिवर्तित होते समीकरणों को पहचानना आवश्यक है। नेताओं से जनसमुदाय की मात्र इतनी अपेक्षा है कि ‘सच को सच की तरह कहें,जनता को गुमराह न करें।’ जिस समय में नेता लोग साँस लेते हैं,उसी वक़्त में जनता भी खुली आँख से श्वाँस ले रही होती है। यह भूलना प्रत्येक राजनीति दल की अपनी ग़लती है। विचारों के द्वार तभी तक प्रवाहित रहने में सक्षम हैं,जब तक वैश्विक स्तर पर समकालीन विचारों में सामंजस्य से चलते हैं।

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