डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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मित्रता-ज़िंदगी…
‘मित्रता’ २ या २ से अधिक व्यक्तियों के बीच का एक स्नेहपूर्ण बंधन है। यह एक ऐसा अक्षय पात्र है, जिसमें प्रेम, विश्वास और अपनेपन की भावनाएं भरी हैं। यह शक्ति आपकी संकटमोचक बनकर हर आपत्ति में रक्षा करती है। प्रकृति का दान यज्ञ आदिकाल से शुरू है। सूर्य जिस प्रकार अपनी ऊर्जा और प्रकाश देता है, पेड़ जिस तरह धूप से त्रस्त पथिक को शीतल छाया देते हैं, या नदी जिस तरह प्यासे को जल प्रदान करती है, ठीक उसी प्रकार मित्रता भी निरपेक्ष भाव से की जाती है। यहाँ किसी शर्त या स्वार्थ के लिए स्थान नहीं होता।
“जौ चाहत, चटकन घटे, मैलो होई न मित्त।
राज राजसु न छुवाइ तौ, नेह चीकन चित्त॥”
अर्थ- इस दोहे में कवि बिहारी जी कहते हैं, कि यदि आप चाहते हैं कि मित्रता की चटक-चमक ना घटे और मित्रता मैली ना हो, तो अपने मन में अभिमान, अहंकार और दिखावे की धूल मत जमने दो। जिस प्रकार तेल लगी हुई वस्तु की सतह चिकनी हो जाती है और उस पर धूल के स्पर्श मात्र से भी उसकी चमक घट कर वह मैली हो जाती है, उसी प्रकार अभिमान और दिखावे से मित्रता में दरार आ जाती है।
आप अपने रिश्तेदारों का चयन नहीं कर सकते, परन्तु समाज प्रिय इंसान मित्र का चयन अपने-आप करता है। एक बार मित्रता का बीज तो बोया, परन्तु उसे परम विश्वास के जल, श्रद्धा की खाद और प्रेम का सूर्यप्रकाश न मिले, तो वह अंकुरित नहीं होगा। धन-दौलत, जाति, धर्म, शिक्षा, लिंग जैसे अंतर मित्रता के अंतर्मन को छू नहीं पाते। आखिर माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, पुत्र- पुत्री और अन्य कई सम्बन्धी जनों से हम घिरे होकर और उनका प्रेम पाकर भी सच्चे मितवा की खोज में क्यों कर निकल पड़ते हैं ? वह इसलिए, कि मन की गहराई में छुपे हर विचार और भावनाओं को हम अपने सम्बन्धियों से बंधन में उलझने के कारण प्रकट नहीं कर पाते। हमें समझने वाला एक मित्र ही होता है, इसलिए अगर एक भी सच्चा मित्र जीवन में में प्राप्त हो तो हमें मानसिक संतुष्टि प्राप्त होती है। मित्र हमारी कमियों को नजरअंदाज करके हमें हमारी त्रुटियों सहित गले लगाता है। उसे पता है कि सुन्दर गुलाब के साथ उसे एकाध बार काँटे भी चुभेंगे।
‘मित्रता दिवस’ की उत्पत्ति का सबसे प्रचलित कारण प्रथम विश्व युद्ध के बाद की निराशाजनक स्थिति से उबरने और मित्रता के माध्यम से वैश्विक एकता, मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध और शांति को प्रोत्साहित करने की इच्छा के साथ जोड़ा जाता रहा है। हॉलमार्क कार्ड्स के संस्थापक जॉयस हॉल ने १९१९ में अगस्त माह के पहले रविवार को ‘मित्रता दिवस’ मनाने का विचार दिया था, ताकि लोग एक-दूसरे को धन्यवाद कह सकें और दोस्ती का जश्न मना सकें। वैसे भी सप्ताह का अंतिम दिन जश्न मनाने के लिए एकदम उपयुक्त ही है, जो समय के साथ एक लोकप्रिय संस्कृति बन गई है। हमारे देश में भी यह दिन मित्रों के प्रति आत्मीयता प्रकट करने के लिए बड़े उत्साह से मनाया जाता है।
आज की तारीख में हम भले ही वर्ष के १ दिन ‘मित्रता दिवस’ मनाते हैं, परन्तु मित्रता मानव की सामाजिक प्रवृत्ति एवं संस्कृति रही है। सच्ची मित्रता में कई सिद्धांत लागू होते हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है- पारस्परिक विश्वास और निष्ठा, आपसी समझ, सम्मान, सही दिशा का समर्थन और सहानुभूति।
प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तु के अनुसार मित्रता ३ प्रकार की होती है-उपयोगिता, आनंद और सद्गुण। उपयोगिता पर आधारित मित्रता लाभ और फायदे पर आधारित होती है, जैसे विद्यालय के सहपाठी या कार्यस्थल के सहकर्मी की मित्रता। आनंद मित्रता एक-दूसरे की संगति का आनंद लेने पर आधारित होती है, जैसे साथ में पिकनिक मनाना और सैर सपाटा में मौज-मस्ती करना। सद्गुण पर आधारित मित्रता सर्वोत्कृष्ट एवं स्थायी होती है, क्योंकि यह एक-दूसरे के चरित्र के प्रति पारस्परिक सम्मान और प्रशंसा पर आधारित होती है। यह सबसे उत्कृष्ट प्रकार की मित्रता मानी जाती है क्योंकि इसमें दोनों मित्र एक-दूसरे के व्यक्तित्व को और अधिक निखारने में मदद करते हैं। अरस्तु का मानना था कि सद्गुण मित्रता दुर्लभ है, क्योंकि इसके लिए उच्च कोटि के चरित्र और सद्गुणों की आवश्यकता होती है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में सच्ची मित्रता के कई अनुकरणीय उदाहरण हैं। चिरंतन महाकाव्य ‘रामायण’ को ही लें, तो पुरुषोत्तम राम की मित्रता किसी जाति विशेष या कुल की मर्यादा से परे है। राम के वनवास के काल में उनके प्रिय मित्र ऋंगवेरपुर के राजा निषाद राज आदिवासी समाज के थे। वे अपना समूचा राज्य राम को अर्पण करना चाहते थे। पंचवटी में रावण ने जब सीता का अपहरण किया, तब सर्वप्रथम रावण से युद्ध करने वाले गिद्ध पक्षीराज जटायु महाराज दशरथ के परममित्र थे। इस संघर्ष में जटायु ने अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। किष्किंधा के युवराज वानर सुग्रीव ने सीता की खोज में निकले श्रीराम से मित्रता की। बदले में राम ने अपनी मित्रता का मोल चुकाने के लिए बाली और सुग्रीव के द्वंदयुद्ध में सुग्रीव को पिछड़ता देख वृक्ष की ओट से तीर मारा। अपनी मित्रता को निभाने हेतु अपने निष्कलंक चरित्र पर इस लांछन का कलंक उन्होंने बड़े ही आनंद से स्वीकार किया। दयानिधान राम ने रावण के अनुज विभीषण से मित्रता की और ‘यह घर का भेदी लंका को ढह गया।’ स्वर्णिम लंका के सिंहासन पर श्रीराम को बिठाने के लिए आतुर विभीषण को श्रीराम ने ऐसा करने से मना किया।
ऐसे ही महाभारत में मित्रता के कई पहलू हैं। कृष्ण चरित्र में कृष्ण और उनके गुरु बंधु सुदामा की मित्रता बहुत प्रचलित है। दरिद्री ब्राह्मण सुदामा के मुट्ठीभर चावल के एवज में द्वारकाधीश कृष्ण अपने बालसखा को राजमहल एवं समस्त ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। कृष्ण और अर्जुन समवयस्क हैं पर बंधु कम और सखा अधिक। श्रीकृष्ण अपने सखा की बात मान कर कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन के सारथी बन जाते हैं। भावनाओं के उद्रेक में बह कर जब अर्जुन कुरुक्षेत्र में अपने सगे-सम्बन्धियों को समक्ष देख अपने शस्त्र डाल देता है, तब उसके परम मित्र कृष्ण उन्हें ‘गीता’ का अमर उपदेश कर युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं। पितामह भीष्म को प्रभावशाली होते देख अपनी प्रतिज्ञा तोड़ रथ का चक्का उठाकर वे भीष्म को मारने दौड़ते हैं। वे अर्जुन द्वारा कुशलतापूर्वक जयद्रथ का वध करवाते है, एवं निःशस्त्र भीष्म और कर्ण का वध करने को प्रेरित करते हैं। यह दिव्य मित्रता वे आजीवन निभाते हैं। कृष्णसखी कृष्णा यानी श्यामला द्रौपदी का कृष्ण के साथ रिश्ता स्त्री और पुरुष के उत्कट भावनात्मक अशरीरी और अपार स्नेहिल के नाते का अनुपम उदाहरण है। द्रौपदी वस्त्रहरण के प्रसंग पर श्रीकृष्ण ने ही उस पर आए संकट का निवारण किया। जब बाद में द्रौपदी ने श्रीकृष्ण से पूछा कि उसने आने में इतनी देर क्यों लगा दी, तो श्रीकृष्ण ने उससे कहा, “तुमने जैसे ही बुलाया, वैसे ही मैं आया।” लज्जा से बोझिल द्रौपदी को याद आया, कि उसे पतियों, हस्तिनापुर दरबार में बैठे महाराज धृतराष्ट्र, गुरुजन एवं समस्त योद्धाओं से की प्रार्थना विफल होने के पश्चात् ही सबसे अंत में सखा कृष्ण का स्मरण हुआ। महाभारत में घनिष्ट स्वार्थी मित्रता का एक अन्य उदाहरण हमें अलग ही सीख देता है। दुर्योधन अपने स्वार्थ के लिए सूतपुत्र का लांछन लगे हुए कर्ण को अंगदेश का राजमुकुट पहना देता है। इसी उपकार के तले दबकर अच्छा स्वभाव और सद्गुणों के होते हुए भी दानवीर कर्ण दुर्योधन के गलत पक्ष का हर बार समर्थन करता है। वह दुर्योधन की मित्रता में अँधा होकर दुर्योधन की हर कुटिल योजना में सहभागी होता है। इसी कुसंगति के कारण अंत में वह जेष्ठ पांडव होकर भी अपने ही अनुज अर्जुन के हाथों मारा जाता है।
इन दो महाकाव्यों के अतिरिक्त २ ग्रन्थ याद आते हैं-ईसप नीति और पंचतंत्र। उनमें पशु-पक्षियों की अनोखी मित्रता की कई नैतिक कहानियाँ हैं। ईसप नीति की एक शेर और मानव की मित्रता की कहानी बहुत ही अच्छी लगती है- एक गुलाम एंड्रोक्लीज़ अपने मालिक से भागकर जंगल में छिप जाता है। वहाँ उसे १ घायल शेर मिलता है। एंड्रोक्लीज़ शेर के पैर से काँटा निकालता है। बाद में एंड्रोक्लीज़ पकड़ा जाता है और उसे मरने के लिए एक शेर के सामने अखाड़े में फेंक दिया जाता है। सभी को आश्चर्यचकित करते हुए शेर एंड्रोक्लीज़ को पहचान लेता है, कि यह वही इंसान है, जिसने उसकी मदद की थी और उससे प्रेम से लिपट जाता है। सम्राट यह अनोखी मित्रता देखकर द्रवित हो जाता है और एंड्रोक्लीज़ एवं शेर दोनों को मुक्त कर देता है।
हमें अपने मित्र के स्नेह को एक हीरे-जवाहरात से भरी संदूक की भांति सहेजकर रखना चाहिए। हीरे-जवाहरात चोरी हो गए तो शायद वापस मिल जाएंगे, लेकिन एक बार किसी भी कारणवश आपका मित्र आपसे दूर चला जाए तो वापस नहीं आएगा-
“रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ी जाय॥”
अर्थ-प्रेम का धागा महीन होता है, उसे झटका देकर नहीं तोड़ना चाहिए। यदि वह टूट गया तो फिर जुड़ता नहीं और जुड़ भी जाए तो गाँठ पड़ जाती है।