संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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बसंत पंचमी: ज्ञान, कला और संस्कृति का उत्सव…
खुशियों भरी ऋतु,
कलियों, फूलों, बहारों का
नवचेतन मन का,
उल्लासित तन का
रंग-बिरंगी सपनों का,
आम की बयार का
भौंरों की गुंजन का,
कोयल की कूक का
इंद्रधनुषी रंग की तितलियों का,
प्रीत का, मौसम बहार का
‘बसंत।’
वक्त उनकी यादों का,
गुजरता नहीं था यह सिलसिला
साथ बिताई सुहानी शामों का,
उनके साथ होने से मार्गशीर्ष भी
तब लगता ‘बसंत’ था।
बीती बातों का, मुलाकातों का,
गुजरता नहीं था यह सिलसिला
मिलते थे जब भी बातें होती थी,
लेकिन रोमांटिक से ज्यादा
वैचारिक आज के परिवेश की बातों का,
बीच में ही उनका खिल-खिलाकर हँसना
तब लगता ‘बसंत’ था।
उनका हौले से हाथ मेरा,
अपने कोमल हाथों में लेने का
स्पर्श भी उनका लगता था,
जैसे सुंगध हो ताजे फूलों की
बस याद आते ही रोम-रोम सिहरना,
तब लगता ‘बसंत’ था।
साथ-साथ चलते दूर तक,
फूलों की बगिया में
तितलियों के झुंड में,
बचपन की यादों में,
किशोरावस्था की
कहानियों में भुलाकर सारी दुनिया को
उपभोग लिया था आनंद का,
तब लगता ‘बसंत’ था।
आज न वो साथ है,
वियोग का दु:ख है
मन में तूफान है,
आँखों में समंदर है
न भौंरों का गुंजन है,
न कोयल की कूक है
न इंद्रधनुषी तितलियाँ हैं।
फिर भी ‘बसंत’ आया है,
अब लगता है ‘बसंत’ आता ही रहेगा॥