गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
***********************************************
यदि आपकी सर्वशक्तिमान प्रभु के प्रति अटूट आस्था है और आप समर्पित हैं तो आप यह मान कर चलें कि आपको मनोवांछित फल वे अवश्यमेव प्रदान करेंगे। इस तरह की अनेक सत्य घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है। मैं स्वयं इसका साक्षी हूँ। इसी कड़ी में परमश्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के एक कथन का उल्लेख करना चाहूँगा जिसमें उन्होनें बताया था कि,’वस्तु से,व्यक्ति से, परिस्थिति से,घटना से,अवस्था से जो सुख चाहता है,आराम चाहता है,लाभ चाहता है,उसको पराधीन होना ही पड़ेगा,बच नहीं सकता,चाहे ब्रह्मा हो,इन्द्र हो,कोई भी हो। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि भगवान भी बच नहीं सकते। जो दूसरे से कुछ भी चाहता है,वह पराधीन होगा ही।’ इसीलिये यही समझाना है कि यदि हम सर्वशक्तिमान प्रभु पर भरोसा रख,सब-कुछ उन पर छोड़ देंगे तो सारी व्यवस्था को उन्हें सम्भालना पड़ेगा।
सन्त नामदेव जी की जि़द के आगे प्रभु विठ्ठल वाला वाकया हो या शबरी की श्रद्धा आगे प्रभु श्रीराम जी वाला वाकया या फिर भक्त नरसी वाला सुप्रसिद्ध नानीबाई का मायरा वाला वाकया,सभी इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्रभु के प्रति समर्पित होकर सच्चे मन से याद करें तो वे हमारी व्यथा का समुचित निराकरण करेंगें ही। एक बात और यदि कोई समर्पित हो उनकी परीक्षा भी लेना चाहें तो प्रभु निराश भी नहीं करते और अन्यथा भी नहीं लेते।
परीक्षा वाले वाकये से जुड़ी कर्मयोगी सन्त मलूकदास जी से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक सच्ची घटना ध्यानार्थ- संत मलूकदासजी नास्तिक थे। इनके जीवन में एक ऐसी अत्यन्त रोचक घटना घटी,जिसने इनके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन ही नहीं कर दिया बल्कि इन्हें आस्तिक बना दिया।उस घटना का इन पर इतना असर हुआ कि इन्होंने उक्त दोहा गढ़ा,जो कालान्तर में इतना ज्यादा लोकप्रिय है कि,किसान-मजदूरों से भी आसानी से सुना जा सकता है-
‘अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए,सबके दाता राम॥’
उपरोक्त दोहे के कारण उनकी याद अपने-आप आ ही जाती है,हालाँकि उनकी अन्य रचनाएं आज भी काफी प्रसिद्ध हैं। उन रचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि इनकी परमात्मा के अस्तित्व में प्रबल आस्था थी,साथ ही वे सतत नाम स्मरण को विशेष महत्व देते थे।
अब मलूकदासजी से सम्बन्धित उस अत्यन्त रोचक घटना को जान लें,जिसके चलते ही इस दोहे को गढ़ा-
कहा जाता है कि कर्मयोगी संत मलूकदासजी आस्तिक नहीं थे,लेकिन एक बार गाँव में होने वाली एक राम कथा में(गाँव की परिपाटी अनुसार कम से कम एक दिन वाली उपस्थिति देने) ये भी पहुँच गए। उस समय व्यास पीठ से उपस्थित श्रोताओं को प्रभु श्रीरामजी कि महिमा बताते हुए कहा गया कि,’प्रभु ही संसार में एक मात्र ऐसे दाता हैं,जो भूखों को तो अन्न देते हैं और नंगों को वस्त्र एवं आश्रयहीनों को आश्रय भी।’ इतना सुन कर्मयोगी संत मलूकदासजी विचलित हो गए और बिना समय गंवाए उन्होंने व्यास पीठ पर विराजमान महात्मा से क्षमा माँगते हुए अपनी बात रखते हुए कहा कि,’महात्मन! यदि मैं बिना कोई काम किए चुपचाप बैठकर प्रभु रामजी का नाम लूं,तब भी क्या प्रभु रामजी भोजन दे देंगे ?’
व्यास पीठ पर विराजमान महात्मा ने उन्हें आश्वस्त किया कि निसंकोच देंगे। उसके बाद फिर उन्होंने पूछा और कहा कि यदि मैं घनघोर जंगल में एकदम अकेला बैठ जाऊं,तब भी ?
महात्मा ने दृढ़तापूर्वक उन्हें समझा दिया कि,हर हालत में प्रभु रामजी भोजन देंगे।
इतना सुनने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि प्रभु रामजी की दानशीलता की परीक्षा ले लेनी चाहिए। यह सोच दूसरे दिन सबेरे-सबेरे ही घनघोर जंगल के भीतर एक घने पेड़ के ऊपर चढ़ अपना डेरा जमा लिया। दिन ढला और सूर्य भगवान पश्चिम की पहाड़ियों की ओट में चले गए। इसके बाद जो थोड़ा बहुत दिखायी दे रहा था,वह भी लुप्त हो गया। इस तरह भूखे-प्यासे सारी रात निकल गई। सुबह होते ही फिर आशा जागी और दूसरे पहर सन्नाटे में उन्हें अनेक घोड़ों की टापों की आवाज जब कानों में पड़ी,तब सतर्क होकर सावधानी बरतते हुए बैठ गए। कुछ देर में ही उनकी तरफ ही कुछ राजकीय अधिकारी घोड़ों पर बैठे धीरे-धीरे आ रहे थे। वे उस पेड़ की छाँव में घोड़ों से उतर,वहीं भोजन कर लेने की सोची। ज्यों ही उनमें से एक अधिकारी ने थैले से भोजन का डिब्बा निकाल जमीन पर रखा,शेर की जबर्दस्त दहाड़ सुनाई पड़ी,जिसके चलते घोड़े बिदककर भाग गए। इस घटना से सारे अधिकारी स्तब्ध हो कर बिना कोई आवाज किए एक-दूसरे से आँखों के माध्यम से ही सलाह कर उस जगह को छोड़ना ही उचित समझा और वे वहाँ से भाग गए। इस पूरी घटना को मलूकदासजी पेड़ पर बैठे-बैठे देख रहे थे। अब मलूकदासजी की आँखें शेर को खोज ही रहीं थीं,तभी देखा कि शेर तो दहाड़ता हुआ दूसरी तरफ जा रहा है। अब वो आश्चर्यचकित हो नीचे पड़े भोजन को देखते हुए सोचने लगे कि प्रभु श्रीरामजी ने उनकी सुन ली है,अन्यथा भोजन यहाँ कैसे पहुँचता। अब वो सोचने लगे-इस भोजन को प्रभु मेरे मुँह में कैसे डालेंगे ?
थोड़ी देर बाद जैसे ही तीसरा पहर शुरू हुआ,फिर उसने घोड़ों की टापों की आवाज सुनी और पाया की डाकुओं का एक बड़ा दल उसके पेड़ की तरफ तेजी से चला आ रहा है। जैसे ही दल पेड़ के पास पहुँचा,तब वे लोग वहाँ रखे चाँदी के बर्तनों में विभिन्न व्यंजनों के रूप में पड़े हुए भोजन को देख ठिठक गए। चूँकि वे भूखे तो थे ही,सो डाकुओं के सरदार ने अपने साथियों से कहा-‘देखो भगवान की लीला,हमें भूखा पा इस निर्जन वन में सुंदर डिब्बों में भोजन भेज दिया। इसलिये सबसे पहले प्रभु के भेजे इस प्रसाद को पा फिर आगे बढ़ेंगे।’ तभी एक शकी स्वभाव वाले साथी ने सरदार को आगाह करते हुए निवेदन किया कि इस सुनसान जंगल में इतने सजे-धजे तरीके से सुंदर बर्तनों में भोजन का मिलना मुझे यह सोचने पर मजबूर किया है कि भोजन को जाँच लेना चाहिए। यानि कहीं इसमें विष तो मिला हुआ नहीं है। एक अन्य साथी ने कहा यदि यह बात है तब तो भोजन लाने वाला आसपास ही कहीं छिपा होगा। यह सब सुन सरदार ने सभी को सब तरफ तलाश करने को कहा। तलाशी अभियान के दौरान एक डाकू की नजर पेड़ पर शान्त बैठे मलूकदासजी पर पड़ी और उसने तुरन्त सरदार को सूचना दे दी। सरदार ने सिर उठाकर उनको देखा तो उसकी आँखों में खून उतर आया,यानि आँखें अंगारों की तरह लाल हो गईं। उसने कड़कती आवाज में उनसे कहा,-‘दुष्ट! भोजन में विष मिलाकर तू ऊपर जा कर बैठ गया है। चल तुरन्त ही नीचे उतर।’
सरदार की कड़कती आवाज सुनते मलूकदासजी बहुत डर तो अवश्य गए,फिर भी उतरे नहीं बल्कि पेड़ पर बैठे-बैठे धैर्य के साथ बोले,-‘व्यर्थ दोष क्यों मढ़ते हो ? विश्वास करो,भोजन में विष नहीं है।’ इतना सुनते ही सरदार ने आदेश दिया-‘पहले तीन-चार साथी पेड़ पर चढ़ इसके मुँह में भोजन ठूँसो, तभी झूठ-सच का पता चल पाएगा।’ इसके बाद तुरन्त ही तीन-चार डाकू भोजन का डिब्बा उठा पेड़ पर चढ़ गए और अपने हथियारों के जोर से मलूकदासजी को खाने के लिए विवश कर दिया। यानि एक कौर उनके मुँह में ठूँस दिया। मलूकदासजी को भूख तो लगी हुई थी,इसलिए छक कर आराम से भोजन करने के बाद ही पेड़ से नीचे उतरे और सभी डाकुओं को सारी बात सही- सही बयाँ कर दी। डाकुओं ने उनकी बात ध्यानपूर्वक सुनने के बाद आपसी सलाह कर उन्हें छोड़ दिया।
इस तरह उन्होंने सर्वशक्तिमान प्रभु की माया का अनुभव कर सोचा कि व्यास पीठ पर विराजमान महात्मा ने एकदम ठीक ही कहा था कि ,हर हालत में प्रभु रामजी भोजन देंगे,चाहे कैसे भी दें। इस घटना से उनके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया और वे सर्वशक्तिमान ईश्वर के पक्के भक्त बन गए। गाँव पहुँचने के बाद सभी को पूरी घटना से अवगत कराया,साथ ही उपरोक्त दोहा भी गढ़ सबको सुना दिया।
उपरोक्त घटना से एक बात तो स्पष्ट हो रही है कि शुद्ध कर्म,वचन व मन से यदि हम सबके साथ व्यवहार करते हैं तो सर्वशक्तिमान प्रभु निश्चित ही हमारे साथ सबसे ज्यादा प्रेमपूर्ण भाव रखते हुए सब कष्टों से उबार लेंगे,भले ही हम उन्हें भजें या न भजें। कुलमिलाकर हमें अपने मन में कभी भी किसी का अहित करने की मंशा नहीं रखनी है। यदि ऐसा हम कर पाते हैं तो हम भी मलूकदास जी की तरह प्रभु की परीक्षा ले सकते हैं।
बता दूँ कि ऐसा पढ़ने में आता है कि औरंगजेब जैसा पशुवत मनुष्य भी उनको बहुत मानता था, सम्मान देता था,क्योंकि मलूकदासजी ने स्वाध्याय, सत्संग व भ्रमण से व्यावहारिक ज्ञान अर्जित किया। उनके उपदेश हृदय में समा जाते थे।