दिल्ली
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‘विश्व नदी दिवस'(२८ सितम्बर) विशेष…
नदियाँ मात्र जलधाराएं नहीं हैं, वे जीवन की धमनियाँ हैं, सभ्यता की जननी हैं और प्रकृति का शाश्वत उपहार हैं। मानव सभ्यता का इतिहास गवाह है कि हर संस्कृति और हर महान नगरी का उदय नदियों के तट पर हुआ। गंगा, सिंधु, नील, अमेज़न, यांग्त्सी जैसी नदियाँ केवल भूगोल का निर्माण ही नहीं करतीं, बल्कि कृषि, व्यापार, परिवहन, ऊर्जा, आस्था और संस्कृति को भी दिशा देती हैं। विश्व स्तर पर हर वर्ष सितंबर के चौथे रविवार को मनाया जाने वाला ‘विश्व नदी दिवस’ हमें यह स्मरण कराता है कि नदियाँ हमारी अस्तित्व-रेखा हैं और उनका संरक्षण करना किसी विकल्प का नहीं, बल्कि हमारे जीवन के अस्तित्व का प्रश्न है। २००५ में संयुक्त राष्ट्र के ‘जीवन के लिए जल दशक’ की शुरुआत के उपलक्ष्य में नदी अधिवक्ता मार्क एंजेलो ने ‘विश्व नदी दिवस’ के गठन का प्रस्ताव रखा था। नदी दिवस नदियों के महत्व को रेखांकित करता है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नदियों की बेहतर देखभाल, संरक्षण व संवर्धन का समर्थन करते हुए जन जागरूकता बढ़ाने का प्रयास करता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका का लगभग ६५ प्रतिशत पेयजल नदियों से आता है, इसी तरह भारत सहित अनेक देशों में पेयजल का मुख्य स्रोत नदियाँ ही है। नदियाँ हमें बिजली पैदा करने, फसलों को पानी देने और पीने योग्य पानी उपलब्ध कराती हैं। यही कारण है कि एम्स्टर्डम, बैंकॉक और बर्लिन जैसे समृद्ध शहर नदियों के किनारे बसे हैं। दुर्भाग्य यह है कि जिन नदियों ने हमें जीवन दिया, हमने उन्हीं को प्रदूषण और विनाश की गर्त में धकेल दिया। औद्योगिक इकाइयों का रासायनिक कचरा, नगरों का गंदा पानी, प्लास्टिक और घरेलू अपशिष्ट ने नदियों को गटर में बदल दिया है। अंधाधुंध बांध निर्माण और जलविद्युत परियोजनाओं ने उनकी प्राकृतिक धारा को बाधित किया है। धार्मिक आस्थाओं और अंधविश्वासों के नाम पर मूर्तियों और अस्थियों का विसर्जन नदियों की पवित्रता को विषाक्त बना रहा है। जलवायु परिवर्तन और हिम खंड के पिघलने से नदियों के अस्तित्व पर संकट गहरा रहा है। भारत में गंगा, यमुना, चंबल, साबरमती जैसी नदियाँ इस प्रदूषण और शोषण का शिकार हैं, वहीं विश्व स्तर पर अमेज़न, नील और डेन्यूब भी प्रदूषण और अत्यधिक दोहन की मार झेल रही हैं। पृथ्वी की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपनी जीविका के लिए मछलियों पर निर्भर है, इसलिए हमें औद्योगिक कचरे के कारण नदियों के क्षरण को सक्रिय रूप से रोकने और पानी के नीचे के पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है।
असंख्य मछलियाँ, कछुए, पक्षी और जलीय प्राणी नदियों से अपना जीवन पाते हैं। जब नदी प्रदूषित होती है तो यह जैवविविधता समाप्त होने लगती है, खेत बंजर हो जाते हैं, भू-जल स्तर गिर जाता है और प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगता है। नदियों की मृत्यु वास्तव में पृथ्वी-सृष्टि की मृत्यु है। इन परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि नदियों के संरक्षण को हम केवल सरकारी योजनाओं या नीतियों तक सीमित न रखें, बल्कि इसे जनांदोलन का रूप दें। प्रदूषण पर कठोर नियंत्रण, जल प्रबंधन, वर्षा जल संचयन, शोधन संयंत्रों की अनिवार्यता और सामाजिक जागरूकता ही वे उपाय हैं, जिनसे नदियों को नया जीवन दिया जा सकता है। गंगा एक्शन प्लान और ‘नमामि गंगे’ जैसी योजनाएँ तभी सार्थक होंगी, जब समाज ईमानदारी से अपने हिस्से का कर्तव्य निभाएगा। नदियों को गंदा करना आत्मघात है और उन्हें बचाना जीवन रक्षा का संकल्प है।
भारत में तेजी से बढ़ते प्रदूषण, तथाकथित भौतिकवादी सोच, उपेक्षा एवं दोहन के कारण कई नदियाँ अब ‘मृत’ होने की कगार पर है। गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियां भी दुनिया की प्रदूषित नदियों में शामिल हो चुकी है। जरूरत है मानसूनी जल को नदियों से जोड़ने एवं संरक्षित करने की। देश में सर्वत्र नदियों का अस्तित्व खतरे में है। विशेषतः उत्तर प्रदेश में नदियों की संख्या लगभग १००० है, जिनका ५५ हजार किलोमीटर का नेटवर्क है। उनमें से ३० हजार किलोमीटर क्षेत्र में जल घटा है या सूखा है। प्रदेश की १०० छोटी और सहायक नदियाँ सूख चुकी हैं। बिहार की ५० से अधिक नदियाँ संकट में हैं। यमुना नदी भारत की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है और यह प्रदूषण व अत्यधिक दोहन के कारण मरने की कगार पर है। हैरानी की बात है कि गंगा, सोन और अघवारा जैसी बड़ी नदियों में भी पानी कम है। उत्तराखंड में अल्मोड़ा-हल्द्वानी की लाइफलाइन कोसी और गौला नदियों का जलस्तर कम हो रहा है।
जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा के तरीकों में बदलाव आया है, जिससे रेत का अवैध खनन भी नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है और नदियों के बहाव को बदल रहा है। जंगलों की कटाई से मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है, जिससे नदियों में गाद जमा हो रही है और गहराई कम हो रही है। भारत नदियों का एक अनोखा देश है, जहां नदियों को पूजनीय माना जाता है। गंगा, यमुना, महानदी, गोदावरी, नर्मदा, सिंधु (सिंधु), और कावेरी जैसी नदियों को देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता है।
नदियां मानव अस्तित्व का मूलभूत आधार है और देश एवं दुनिया की धमनियाँ हैं, इनमें यदि प्रदूषित जल पहुंचेगा तो शरीर बीमार होगा, लिहाजा हमें नदी रूपी इन धमनियों में शुद्ध जल के बहाव को सुनिश्चित करना होगा। नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किए जाने की जरूरत है। देश में नदी जल एवं नदियों के लिए कानून बने हुए है, आवश्यक हो गया है कि उस पर पुनर्विचार कर देश के व्यापक हित में विवेक से निर्णय लिया जाना चाहिए। हमारे राजनीतिज्ञ, जिन्हें सिर्फ मतों की प्यास है और वे अपनी इस स्वार्थ की प्यास को इस पानी से बुझाना चाहते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश में गर्मी और लू के दिन जहां बढ़ रहे हैं, वहीं बरसात के दिन घटते जा रहे हैं। ऐसे में मानसूनी वर्षा के जल को यदि सलीके से नहीं सहेजा गया तो देश की स्थिति पर जल-संकट का बड़ा घातक प्रभाव होगा।
नदी दिवस हमें यह चेतावनी देता है कि यदि नदियाँ सूख जाएंगी, प्रदूषित हो जाएंगी या विलुप्त हो जाएंगी तो मानव सभ्यता का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। नदियां हमारी जीवनरेखा और सांस्कृतिक धरोहर हैं, उनका संरक्षण करना ही आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवन और आशा को बचाना है। यह आह्वान करता है कि हम नदियों को केवल उपयोग की वस्तु न समझें, बल्कि जीवित प्राणी की तरह उनका सम्मान करें, क्योंकि नदी बचेगी तो जीवन बचेगा, नदी बहेगी तो संस्कृति बहेगी।