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‘सोने की चिड़िया’ रहे देश की संसद किस दिशा में..?

अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर (मध्यप्रदेश)
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देश के लिए सब कुछ तय करने वाला सर्वोच्च सदन यानी संसद, जिसे देश की सबसे पवित्र और सबसे जिम्मेदार लोकतांत्रिक संस्था माना जाता है, उसी में ‘वन्दे मातरम्’ कके लिए बहस के नाम पर अगर १० घंटे तमाशे का अखाड़ा हो, तो सोचना लाज़मी है कि ‘सोने की चिड़िया’ रहा देश किस दिशा में जा रहा है। जब देश की जनता करोड़ों उम्मीदों के साथ अपने प्रतिनिधियों को इस पवित्र सदन में भेजती है, और वे प्रतिनिधि मुद्दों को सुलझाने की बजाय समय के बहस के कुएँ में घंटों कीमती मिनट डुबो देते हैं, तो बड़ा दुःख होता है कि इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी ?
सबको पता है कि संसद का १-१ मिनट जनता के कर के पैसे से चलता है, और जब सांसद २-४ मिनट नहीं, बल्कि पूरे १० घंटे किसी एक गीत, किसी एक नारे, किसी एक विवाद पर ऐसी बहस में झोंक देते हैं, जिसका देश की भलाई से सीधा कोई लेना-देना नहीं है, तो यह लोकतंत्र के साथ विश्वासघात ही कहलाएगा ना।
समझ से परे है कि आख़िर १० घंटे ‘वन्दे मातरम्’ गीत पर बहस क्यों ?
क्या यह सवाल करना अपराध है कि इतने लंबे समय तक आखिर बहस में क्या निष्कर्ष निकला ? क्या इस बहस से किसानों का कर्ज माफ हुआ ? क्या बेरोजगारों को नौकरी मिल गई ? क्या महंगाई रुक गई ? क्या गरीब को सस्ती दवा मिल गई ? और क्या युवाओं के लिए शिक्षा आसान हुई ? नहीं, तो फिर यह बहस किसलिए की गई ? बस इसलिए कि सत्ता पक्ष को अपनी नाक बड़ी करनी थी, विपक्ष की धुलाई करनी थी या विपक्ष ऐसा ही चाहता था कि समय बर्बाद होता रहे और इसका ठीकरा सरकार के माथे आए। यह भी कह सकते हैं कि सिर्फ राजनीतिक ध्रुवीकरण, सिर्फ टी.वी. के पर्दे पर सुर्खियाँ बटोरने के लिए और सिर्फ खुद को ‘देशभक्त’ साबित करने की होड़ के लिए ऐसा किया गया।
अब सवाल यह है कि ऐसे संसद का समय नष्ट करना क्या राष्ट्र के धन की खुली लूट नहीं है, या फिर आम जनता शायद यह नहीं जानती कि संसद का १ मिनट करीब ढाई लाख ₹ का पड़ता है। जरा सोचिए, करदाता के मन पर क्या बीतती है, जब १० घंटे ऐसी बहस में बर्बाद हों, जिसका जनता को कोई लाभ नहीं है, देश को कुछ फायदा नहीं है, तो भी सीधे-सीधे करोड़ों ₹ हवा में उड़ा दिए गए हैं। ये पैसे किसी सांसद की निजी जेब से नहीं जाते, ये देश के मजदूर, किसान, कर्मचारी, छोटे व्यापारी, कर देने वाले युवाओं की जेब से जाते हैं। क्या यह आर्थिक अपराध नहीं है ? क्या नेताओं को इसका दंड नहीं मिलना चाहिए ?
इसके लिए पक्ष और विपक्ष दोनों बराबर जिम्मेदार हैं, क्योंकि सत्ता पक्ष अपनी जिद में बहस को लंबा खींचता है, तो विपक्ष अपनी राजनीतिक बाज़ीगरी और जनता को लुभाने की कोशिश में इसे और भड़काता है। दोनों पक्षों का एक ही लक्ष्य रह जाता है-कैमरे पर दिखना, अपनी विचारधारा को ज़बरदस्ती ठूंसना और देश के मुद्दों को किनारे लगा देना, पर यह भूल जाते हैं कि संसद टी.वी. स्टूडियो नहीं है। यह वह महत्वपूर्ण जगह है, जहाँ देश की दिशा तय होती है, न कि नारेबाज़ी और लड़ाई की प्रतियोगिता। इन दोनों पक्ष को यह नहीं दिखता कि इसकी अपेक्षा बेरोजगारी पर १ घंटे की बहस करें। आज देश में करोड़ों युवा बेरोजगारी से जूझ रहे हैं। किसानों की आय बढ़ाने के वादे कागज़ों से बाहर नहीं निकले हैं और आम आदमी के लिए तो महंगाई कम होने का नाम ही नहीं ले रही है, तो सरकारी शालाओं व अस्पतालों की हालत बदतर है। इसके अलावा पानी, बिजली, शिक्षा, सुरक्षा सहित हर क्षेत्र में चुनौतियाँ हैं। तो क्या कभी सारे सांसद एकसाथ सहमत होकर इन वास्तविक मुद्दों पर १० घंटे बहस करते हैं ? तो क्या कभी एक ही दिन में ऐसी समस्याओं का सही समाधान निकालने की कोशिश हुई है ? जवाब है नहीं, क्योंकि ये मुद्दे न कैमरे में प्रचारित करते हैं, ना ही इससे समाचार चैनलों की प्रसिद्धि बढ़ती है। उल्टा इससे राजनीतिक दुश्मनी बढ़ती है, इसलिए इन पर बहस से बचा जाता है; जबकि सरकार को जनता के लिए मूलत: यही सब करना है। आखिर जनता ने सरकार को क्यों चुना है-१० घंटे समय और करोड़ों ₹ की फिजूलखर्ची के लिए या अपने भले के लिए…।
निश्चित ही ऐसा होना यह लोकतंत्र की गिरती संस्कृति का प्रमाण है, क्योंकि संसद की गरिमा इस देश की रीढ़ है। अगर वही मज़ाक बनती जाए तो समझ लीजिए बीमारी गहरी है। आज जब पूरा विश्व आर्थिक प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ रहा है और भारत को भी बढ़ना है, तो संसद में समय एवं रुपयों की यह फिजूलखर्ची हमें कहाँ ले जाएगी। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, पर सरकार और विपक्ष ने आज तक इस विषय पर अपनी एकता नहीं दिखाई है।
संसद के माध्यम से जिन मुद्दों पर रात-दिन काम करना चाहिए, जिन कानूनों पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए, उन्हें जल्दबाज़ी में स्वीकृत कर दिया जाता है अथवा हाशिए पर रखा जाता है। वहीं जिन विषयों से देश का विकास नहीं होता, उन पर पूरा दिन बर्बाद कर दिया जाता है।
अब समय आ गया है कि संसद में समय बर्बाद करने को अपराध माना जाए। जनता हर जरिए से इसके लिए आवाज उठाए, आपत्ति ले और स्पष्ट कहे कि अगर कोई सांसद संसद में लगातार उदंडता करता है, बहस को भटकाता है, मुद्दों से ध्यान हटाता है, एवं नियम के विरुद्ध कुछ भी करता है तो उस पर अनिवार्यत: जुर्माना लगाया जाना चाहिए। इसमें पक्षपात रहित कार्रवाई आवश्यक है, तभी राजनीति में सुधार सम्भव होगा। अगर किसी दिन की कार्यवाही बाधित होती है, तो उसकी आर्थिक लागत जिम्मेदार सांसदों या दलों पर डालनी चाहिए, क्योंकि आप जनसेवक और जनप्रतिनिधि हो, ‘वन्दे मातरम्’ पर बहस करने गए वक्ता नहीं। जनता को जागना होगा, बात करनी होगी।
अगर जनता इस बात पर सवाल नहीं उठाएगी कि उनका पैसा कहाँ और कैसे बर्बाद हो रहा है, तो फिर ये तमाशे चलते रहेंगे। नेताओं को पता है कि मीडिया की तरह जनता आवाज़ नहीं उठाती है, तभी तो वे बेपरवाह हैं। इसलिए जनता को स्पष्ट संदेश देना होगा-संसद बहस के लिए है, बहस का मतलब मुद्दों पर समाधान निकालना है, ना कि नारेबाज़ी और राजनीतिक दिखावा करना है।
आखिर देश तो तभी बदलेगा ना, जब संसद बदलेगी, और संसद तभी बदलेगी जब उसके सभी सदस्य अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। और वे तभी समझेंगे, जब जनता उन पर कठोर सवाल दागेगी, क्योंकि १० घंटे की बेमानी बहस लोकतंत्र का सीधा अपमान है। ऐसी हर फिजूल बहस को रोकना ही होगा। बहस बुरी नहीं, होनी चाहिए, लेकिन विषय की गंभीरता और समय समझना पड़ेगा।
यह न सिर्फ समय की बर्बादी है, बल्कि आर्थिक लूट है। सांसदों को ये समझना होगा कि संसद जनता के लिए बनाया गया ‘निर्णय घर’ है।
और जनता के पैसे की यह बर्बादी जनता अब बर्दाश्त नहीं करेगी।
साफ है कि सदन में बहस हो, सांस्कृतिक सम्मान-अपमान की बात की जाए, पर आखिर जनता उस करोड़ों की राशि का बोझ क्यों झेले, जो कुछ नेताओं की राजनीतिक नौटंकी में बर्बाद होती है।
आज देश को जवाब चाहिए, नाटक नहीं, क्योंकि हमारा देश तब आगे बढ़ेगा, जब संसद मुद्दों पर गंभीरता से काम करेगी। अगर संसद में भी जनप्रतिनिधि ऐसे गीत, नारों या राजनीतिक जिद में उलझकर जनता के विश्वास को चकनाचूर करेंगे तो फिर देशभक्ति, विकास और जनता के हित के काम कौन करेगा ? नेता प्रतिपक्ष, गृह मंत्री या प्रधानमंत्री से देशभक्ति का दिखावा अपेक्षित नहीं है, बल्कि ईमानदार कार्रवाई और संसद के कीमती समय को खराब होने से बचाना है, क्योंकि आप जिम्मेदारी की कुर्सी पर हैं।