डॉ. अमरनाथ
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केन्द्रीय हिन्दी संस्थान ने आनंद कुमार (निदेशक-नीति, गृह मंत्रालय,भारत सरकार) को प्रेषित अपने नवीनतम पत्र (तारीख नहीं)में २८ जुलाई २०२१ को प्रेषित अपने पूर्व पत्र से पल्ला झाड़कर समझदारी का काम किया है। संस्थान की ओर से निदेशक डॉ. बीना शर्मा ने अपने पूर्व पत्र का उल्लेख करते हुए स्पष्टीकरण दिया है और लिखा है, “वर्तमान स्थिति में किसी भी प्रकार के सर्वेक्षण की पुष्टि करना हमारे लिए संभव नहीं है।” निश्चित रूप से संस्थान ने ऐसा करके अपनी प्रतिष्ठा बचा ली है किन्तु डॉ. नौटियाल अति उत्साह में पिछले डेढ़ दशक से समाज में जो भ्रम फैला रहे हैं,उस पर से आवरण हटना बहुत जरूरी है। डॉ. नौटियाल अपने भ्रामक शोध-निष्कर्ष को गृह मंत्रालय तक पहुंचाने और उसकी संस्तुति हासिल करने के लिए हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयासरत देश की सबसे प्रतिष्ठित संस्था केन्द्रीय हिन्दी संस्थान को भी एक बार भ्रमित करने में सफल हो गए थे। अच्छा हुआ जल्दी ही संस्थान को अपनी गलती का अहसास हो गया,किन्तु अपना स्पष्टीकरण देते हुए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान और गृह मंत्रालय दोनों की किरकिरी जरूर हुई है।
डॉ. नौटियाल ने अपने निजी प्रयासों से शोध करके निष्कर्ष निकाला है कि,दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है। वे पिछले डेढ़ दशक से इस तरह के भ्रामक अध्ययन-निष्कर्ष के प्रचार में लगे हैं।
दरअसल,वैज्ञानिक ढंग से किए जाने वाले किसी भी शोध के ४ सोपान होते हैं-विषय की प्राक्कल्पना (हाइपोथीसिस),शोध सामग्री का संचयन,सामग्री का वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण और अंत में निष्कर्ष। प्राक्कल्पना कभी भी सिद्धांत के तौर पर नहीं की जा सकती,वह सिद्धांत को स्थापित करने के लिए अनुमानित की जाती है। वह निष्कर्ष तक पहुँचने का साधन मात्र है। डॉ. नौटियाल ने सिद्धांत या निष्कर्ष पहले ही तय कर लिया है। उन्होंने पहले से ही सुनिश्चित कर लिया है कि उन्हें हिन्दी को विश्व की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा सिद्ध करना है। फिर इसे सिद्ध करने के लिए वे उन तथ्यों की उपेक्षा करते हैं, जिनसे उनका पूर्वाग्रह प्रभावित हो सकता था। वे अपने द्वारा चयनित तथ्यों का भी भ्रामक विश्लेषण करते हैं। इस संबंध में उनके द्वारा अपनाए गए २ प्रमुख तथ्यों की ओर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ-
पहला,डॉ. नौटियाल ने हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा माना है और इस तरह भारत और पाकिस्तान की हिन्दी-उर्दू भाषी जनसंख्या को हिन्दी-भाषी जनसंख्या के रूप में ही परिगणित कर लिया है।
यह सही है कि वाक्यों की बनावट,व्याकरण और शब्दावली की दृष्टि से हिन्दी और उर्दू में इतनी समानता है कि ज्यादातर भाषा वैज्ञानिकों ने उर्दू को भी हिन्दी की ही एक शैली माना है,किन्तु हमारे संविधान में उर्दू को हिन्दी से अलग एक स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है। वह भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल २२ भाषाओं में से एक भाषा है,हिन्दी की ही तरह देश के हिन्दी-भाषी कहे जाने वाले राज्यों में भी उर्दू को दूसरी या तीसरी राजभाषा के रूप में मान्यता मिली हुई है। देश के विश्वविद्यालयों तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं में भी उर्दू के स्वतंत्र विभाग और पाठ्यक्रम हैं। ऐसी दशा में उर्दू-भाषियों को हिन्दी में परिगणित करना असंवैधानिक है और संविधान से ऊपर कुछ भी नहीं है। इतना ही नहीं,पाकिस्तान में भी उर्दू राष्ट्रभाषा घोषित है। उसकी अपनी स्वतंत्र लिपि है। पाकिस्तान क्या अपनी राष्ट्रभाषा को हिन्दी में शामिल होने को स्वीकृति देगा ? पाकिस्तान यदि डॉ. नौटियाल के पद-चिह्नों पर चलते हुए इसी तरह से अपनी राष्ट्रभाषा उर्दू में हिन्दी को शामिल करने का प्रस्ताव करे और घोषित करे कि उर्दू दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है तो डॉ. नौटियाल क्य़ा जवाब देंगे ?
डॉ. नौटियाल ने उर्दू के साथ ही मैथिली भाषियों की जनसंख्या को भी हिन्दी भाषियों में शामिल कर लिया है,जो वर्ष २००३ में ही संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होकर हिन्दी से अलग एक स्वतंत्र भाषा बन चुकी है और २०११ की जनगणना में उसे हिन्दी की बोली नहीं,अपितु स्वतंत्र भाषा मानकर अलग कर दिया गया है।
डॉ. नौटियाल द्वारा अपनाया गया दूसरा भ्रामक तथ्य राजभाषा नियम से संबंधित है। दरअसल,राजभाषा नियम-७६ के अनुसार पत्राचार की एक निश्चित नीति के अनुपालन के लिए देश के सभी प्रान्तों को ‘क’, ‘ख’ और ‘ग’, तीन श्रेणियों में बाँटा गया है। ‘क’ श्रेणी में हिन्दी-भाषी राज्य आते हैं। ‘ख’ श्रेणी में गुजरात,पंजाब,चंडीगढ़ आदि राज्य हैं जहाँ हिन्दी को भी पर्याप्त महत्व प्राप्त है और ‘ग’ श्रेणी में आंध्र प्रदेश,असम,कर्नाटक,केरल, उड़ीसा,तमिलनाडु,त्रिपुरा,पश्चिम बंगाल आदि अहिन्दी-भाषी राज्य आते हैं। डॉ. नौटियाल ने ‘क’ श्रेणी में आने वाले राज्यों की शत-प्रतिशत जनता को हिन्दी-भाषी मान लिया है,यद्यपि बड़ी समझदारी से उन्हें ‘हिन्दी जानने वाली’ कहा है। इसी तरह जहाँ की राजभाषाएं हिन्दी नहीं है,ऐसे ‘ख’ श्रेणी के राज्यों में ९० प्रतिशत जनता को उन्होंने ‘हिन्दी जानने वाली’ कहा है। डॉ. नौटियाल ने ‘ग’ श्रेणी के राज्यों में ४६.२४ प्रतिशत जनता को हिन्दी जानने वालों में शामिल किया है। इस तरह उनके द्वारा किए गए शोध के अनुसार २०१५ में भारत की ‘क’, ‘ख’ और ‘ग’ क्षेत्र की कुल जनसंख्या १,२७,४१,९०, ९९२ है जिसमें १,०१,२१,३१,४३३ ‘हिन्दी जानने वाले’ हैं,किन्तु अपने अन्तिम निष्कर्ष में उन्होंने जहाँ विश्व की प्रमुख भाषाओं की सूची दी है और १३०० मिलियन की संख्या दर्शाते हुए सबसे ऊपर हिन्दी को रखा है,वहाँ उन्होंने तालिका में बड़ी चतुराई से हिन्दी ‘भाषा-भाषी’ और अंग्रेजी में ‘स्पीकर्स’ कहा है। यहाँ ‘हिन्दी जानने वाले’ और ‘हिन्दी भाषा-भाषी’ के अंतर की ओर उन्होंने संकेत नहीं किया है। डॉ. नौटियाल ने पूरी चतुराई से अनुबंध-१ की तालिका पृष्ठ संख्या ७ पर ‘भारत में हिन्दी जानने वालों की संख्या’ लिखा है और उनके अनुसार विश्व में हिन्दी- भाषियों की संख्या १८ प्रतिशत है और ११०० मिलियन की संख्या के साथ दूसरे क्रम पर आने वाली मंदारिन=भाषी जनता १५.२३ प्रतिशत है। डॉ. नौटियाल ने अपने अध्ययन के स्रोत के रूप में प्रत्येक तालिका की जगह लिखा है-“स्रोत: डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल द्वारा किया गया शोध अध्ययन सन् २०१५( अनुमानित आँकड़े )।”
कहना न होगा,अनुमानित आँकड़ों से कभी भी शोध-सिद्धांत नहीं गढ़े जाते,क्योंकि वे प्रामाणिक नहीं होते। डॉ. नौटियाल के अनुसार उनके सारे आँकड़े ‘अनुमानित’ हैं।उल्लेखनीय है कि भारत सरकार द्वारा कराई गई जनगणना रिपोर्ट-२०११ उपलब्ध है,जो वैज्ञानिक ढंग से कराई गई एकमात्र प्रामाणिक रिपोर्ट है,डॉ. नौटियाल ने उसकी सूचना भी नहीं ली है,क्योंकि उसे आधार बनाने पर उनके पूर्व निर्धारित निष्कर्ष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता था। भारत सरकार की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में हिन्दी-भाषियों की कुल जनसंख्या ५२,८३,४७,१९३(बावन करोड़ तिरासी लाख सैंतालीस हजार एक सौ तिरानवे) है।
इतना ही नहीं,उन्होंने ३ हजार से अधिक लोगों की सहायता से जार्ज ग्रियर्सन के बाद का सबसे ब़ड़ा भाषा-सर्वेक्षण करने वाले पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के मुख्य संयोजक प्रो. गणेश एन. देवी के निष्कर्षों को भी तिरस्कृत कर दिया है। प्रो. देवी ने अपने सर्वे का हवाला देते हुए १२ नवंबर २०१४ को चैतन्य मल्लापुर के साथ एक साक्षात्कार में स्वीकार किया है कि विश्व में हिन्दी भाषियों की कुल संख्या ४२ करोड़ है।
डॉ. नौटियाल ने अपनी शोध-रिपोर्ट का शीर्षक भी रखा है,-“हिन्दी:विश्व में भाषा भाषियों की दृष्टि से प्रथम एवं सबसे लोकप्रिय भाषा-शोध रिपोर्ट २०१५।”
प्रश्न यह है कि किसी व्यक्ति द्वारा बिना किसी वैज्ञानिक पद्धति से एकत्रित किए गए, अनुमानित आँकड़ों के सहारे इस तरह के निष्कर्ष निकालना, जनता में भ्रम फैलाना और अध्ययन की कमजोरियों को जानते हुए भी उसकी मान्यता के लिए सरकार तक अर्जी देना कहाँ तक उचित हैं ?
निस्संदेह डॉ. नौटियाल विद्वान और अध्ययनशील हैं,किन्तु हिन्दी को प्रतिष्ठित करते समय अपनी नैतिक जिम्मेदारी के प्रति सजग नहीं हैं। यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा कि भारत की सबसे बड़ी पंचायत संसद में हिन्दी के संबंध में बार-बार भ्रामक तथ्य रखा गया है और सभी मंत्री और सांसदों ने उसे यथावत स्वीकार किया है। हिन्दी की एक बोली भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग करते हुए एक सांसद प्रभुनाथ सिंह ने १ दिसंबर २००५ को संसद में कहा था कि भारत में १६ करोड़ और दुनिया में २० करोड़ लोग भोजपुरी भाषी हैं। संजय निरूपम ने भोजपुरी भाषियों की संख्या १८ करोड़ बताई है। जगदंबिका पाल जैसे वरिष्ठ सांसद ने दुनिया में भोजपुरी भाषियों की संख्या २० करोड़ बताई थी। मनोज तिवारी ने संसद में कहा था कि २२ करोड़ भारतीय भोजपुरी बोलते हैं। इतना ही नहीं, कौशाम्बी के सांसद शैलेन्द्र कुमार ने तो सारी हदें पार करते हुए यहाँ तक कह दिया कि,-“भोजपुरी भाषा को देश-विदेश के ४० करोड़ लोग बोलने का काम करते हैं।”
हमें अपने सांसदों की उदारता की दाद देनी चाहिए कि उनमें से किसी सांसद या मंत्री ने इस तरह के बयानों का बुरा नहीं माना,जबकि भारत सरकार की ही जनगणना रिपोर्ट के अनुसार भारत में भोजपुरी बोलने वालों की कुल संख्या २००१ में ३३०९९४९ ७ (तीन करोड़ तीस लाख निन्यानबे हजार चार सौ सत्तानबे ) थी और पिछली २०११ की जनगणना के अनुसार पाँच करोड़ पाँच लाख उन्यासी हजार चार सौ सैंतालीस है।
हमारे नेताओं को राजनीति करनी है उन्हें जनता को लुभाने के लिए झूठ बोलना पड़ता है और भाषण की कलाबाजियाँ भी दिखानी पड़ती हैं। वे हमारे जन-प्रतिनिधि हैं,वे जो कहते हैं वही सच बन जाता है,किन्तु डॉ. नौटियाल नेता नहीं है,शोधार्थी हैं, जहाँ झूठ के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती क्योंकि वह देर-सबेर पकड़ में भी आ ही जाती है।
फिर भी, डॉ. नौटियाल की भी दाद तो देनी ही पड़ेगी कि २००५ की अपनी थीसिस को मान्यता दिलाने के लिए वे १६ साल तक लगे रहे और उसे सरकार तक पहुँचाने में कुछ दिन के लिए ही सही, कामयाब भी हो गए।
आश्चर्य यह कि वैश्वीकरण के बाद जब भारत के हिन्दी क्षेत्र के ही हिन्दी माध्यम वाले विद्यालय तेजी से टूट रहे हैं,और वे अंग्रेजी माध्यम में बदल रहे हैं, हमारे घरों के बच्चे कखग की जगह एबीसी से अक्षर-ज्ञान करना सीख रहे हैं,सरकारी नौकरियों से हिन्दी को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है,उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में हिन्दी नदारद है,सारी उच्च शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जा रही है, वहाँ डॉ. नौटियाल को विश्व में हिन्दी-भाषियों की संख्या शिखर को छूती नजर आ रही है और उसकी लोकप्रियता बुलंदियों पर है।
*सच से आँखें न चुराएँ(टिप्पणी)
डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल के शोध के स्रोतों पर प्रश्न खड़े किए जा सकते हैं लेकिन मेरा यह मानना है कि भाषिक स्तर और कानूनी स्तर को भी एक नहीं माना जा सकता। मेरे स्पष्ट मत है कि उर्दू,हिंदी या हिंदुस्तानी राजनीतिक,संवैधानिक कारणों के बावजूद हिंदी ही है,भले ही लिपि की भिन्नता क्यों न हो। राजनेताओं ने और इसके पहले अंग्रेजों ने इन्हें अलग करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी,लेकिन लिपि को छोड़ कर आज भी मैं कोई विशेष फर्क नहीं पाता। हिंदी अखबारों में छपे मेरे अनेक लेख उर्दू के अखबारों लिप्यांतरण करके ज्यों के त्यों छपते रहे हैं,लेकिन हिंदी भाषा समझने वालों को हिंदी बोलने वाले समझने की बात भी तर्कसंगत नहीं है। अगर हम आत्ममुग्धता के चलते हिंदी के संबंध में सही स्थिति नहीं रखेंगे तो इसका नुकसान हिंदी को ही होगा। देश-दुनिया का बात छोड़िए,मुझे तो हिंदी भाषी राज्यों में भी हिंदी मुट्ठी से फिसलती दिख रही है। हमें स्थितियों का सही आकलन करते हुए आगे बढ़ना होगा।
*डॉ. एम.एल. गुप्ता आदित्य
(निदेशक-वैश्विक हिंदी सम्मेलन)
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)