हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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बहुतायत लोगों की यह धारणा होती है कि तंत्र, मंत्र और तत्व ज्ञान- ये तीनों एक ही विषय के अलग-अलग नाम हैं, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। अध्यात्म-विज्ञान की दृष्टि से देखें तो ये अलग-अलग पड़ाव हैं। प्रत्येक का अपना क्षेत्र, उद्देश्य और लक्ष्य है। इन्हें क्रमवार समझना आवश्यक है:-
🔹तंत्र विज्ञान-भौतिकता का कौशल-
तंत्र प्राचीन भारत की भौतिक सामग्रियों के संतुलित संयोजन का विज्ञान था। यह शरीर, औषधि, धातु, रस, दिशा और समय जैसे भौतिक तत्त्वों के प्रयोग से चमत्कार उत्पन्न करने की कला थी। तंत्र को समझने के लिए कठोर अभ्यास की आवश्यकता होती थी, जिसे आज के युग में ‘प्रशिक्षण’ कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान के विकास के साथ-साथ तंत्र अब भौतिक, रासायनिक और जैव विज्ञान का अंग बन चुका है।
तंत्र वस्तुतः बौद्धिक विलास का विज्ञान था। आज यह सार्वजनिक हो चुका है और आधुनिक प्रयोगशालाओं में इसके सिद्धांत विज्ञान के रूप में आत्मसात हो चुके हैं।
🔹मंत्र विज्ञान-मानसिक साधना का विज्ञान-
मंत्र विद्या वस्तुतः बौद्धिक विलास का विज्ञान है । यह तंत्र से एक कदम आगे की कड़ी थी। इसमें शब्द-साधना और ध्वनि-ऊर्जा के माध्यम से मानसिक जगत को साधा जाता था। मंत्रों से प्रत्यक्ष भौतिक चमत्कार नहीं होते थे, किंतु सूक्ष्म शरीर शक्तिशाली बनता था। तंत्र जहाँ भौतिक शरीर को सशक्त करता था, वहीं मंत्र विज्ञान मन और चेतना को सशक्त करता था।
मंत्र-साधना से साधक को मानसिक सिद्धि और वाक् सिद्धि प्राप्त होती थी।
मानसिक सिद्धि से वह दूसरों के मन के भाव पढ़ सकता था। वाक्-सिद्धि से उसके शब्द वरदान या शाप का प्रभाव धारण करते थे।
आज का मनोविज्ञान इसी विद्या के कुछ अंशों को आधुनिक रूप में समझाने का प्रयास करता है, परंतु इस विद्या का मूल तर्क से नहीं, कल्पना शक्ति से संचालित होता है। यही कारण है कि आधुनिक तर्कशील समाज में यह विद्या लुप्तप्राय: हो गई है। मंत्र विज्ञान आज प्रयोग होता भी है, वह एक तो बहुत कम होता है और फिर सिद्ध पुरुषों के अभाव में प्रयोग होता है,जिससे समाज को भ्रम में तो डाला जा रहा है, पर राहत नहीं पहुंच रही है। मंत्र विज्ञान मन की ताकत को बढ़ाने का एक सशक्त माध्यम था और है, पर शर्त यह है कि इसकी भी सिद्धि शास्त्र में बताए अनुसार किसी सिद्ध के सानिध्य में कर लेनी होती है। मात्र किताबों से पढ़ने से कोई खास प्रभाव मंत्र विज्ञान का नहीं होता है।
🔹तत्व ज्ञान-आत्मा और परमात्मा का संयोग-
तत्व ज्ञान इन दोनों से बिल्कुल भिन्न है। यह न तो तंत्र की भौतिकता से जुड़ा है, न मंत्र की मानसिकता से। यह ज्ञान आत्मा के उस मूल स्रोत की खोज है, जिससे समस्त ऊर्जा प्रवाहित होती है-वह कहाँ से आती है, कहाँ जाती है, और कौन-सा तत्व उसे संचालित करता है ? इन सब घटनाओं का विधिवत ज्ञान ही तत्व ज्ञान है। तत्व ज्ञान किसी चमत्कार या देव-सिद्धि का विज्ञान नहीं है। यह आत्मिक अनुभूति का मार्ग है-आत्मा और परमात्मा के मिलन की यात्रा है।
जो व्यक्ति इस ज्ञान को जानकर व्याख्या सहित लोक में प्रकट कर सके, वही तत्वज्ञानी कहलाता है।
गीता और संत-मत दोनों ही कहते हैं -“जिसे आत्मा और परमात्मा का वास्तविक ज्ञान हो वही ज्ञानी है, शेष सब ज्ञापक मात्र हैं।”
इस ज्ञान की प्राप्ति सद्गुरु की कृपा से ही संभव है-चाहे वह दर्शन कृपा हो, स्पर्श-कृपा हो, दृष्टि-कृपा हो या शब्द-कृपा हो, परन्तु कृपा सदगुरु से ही इनमें से किसी एक माध्यम से या सभी माध्यमों से व्यक्ति को प्राप्त होती है।
यह ज्ञान गुरु-मुख से प्राप्त होता है; इसे केवल पढ़ने, जपने या तर्क से नहीं पाया जा सकता।
यह गूढ़, गोपनीय और रूहानी साधना है-जो मन से प्रारंभ होकर आत्मा में विलीन होती है। यहीं से आत्मा का परमात्मा से समीप्य आरंभ होता है। भौतिकता से मोह छूटता है, दिखावा समाप्त होता है और मन शांति को प्राप्त होता है।आत्मा प्रफुल्लित होती है। यह असल में आत्म विलास का विषय है।
सिद्धि बनाम मुक्ति (उदाहरण)-
मंत्र और तंत्र से सिद्धियाँ मिल सकती हैं-८सिद्धि, ९ निधि, २४ प्रकार की शक्तियाँ, पर वे मुक्ति नहीं देतीं। कुन्ती के पास मंत्र-सिद्धि थी, पर क्या वह दुख-मुक्त हुईं ? नहीं न।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी के ज्ञान के बारे में सब जानते हैं कि उन्होंने स्वामी जी को क्या ज्ञान दिया था ? स्वामी जी माँ काली को सिद्ध भी कर चुके थे, परन्तु फिर भी स्वामी जी को अपनी तत्व-साधना से देवी-सिद्धि के बंधन को तोड़ना पड़ा था।
भगवान राम और कृष्ण तक सांसारिक पीड़ा से मुक्त नहीं रहे।
अतः, सिद्धि मुक्ति का मार्ग नहीं है — केवल तत्व-ज्ञान ही परम मुक्ति का द्वार है।
🔹निष्कर्ष-सत्य की ओर मार्ग-
आज के युग में तंत्र और मंत्र के साधक तो मिल जाएंगे, पर तत्व ज्ञानी दुर्लभ हैं। जो सत्य की खोज lकरना चाहता है, उसे चमत्कारों से नहीं, सद्गुरु की शरण से आरंभ करना होगा। तभी वह उस आनंद-भाव को प्राप्त करेगा, जिसके लिए सूरदास जी ने कहा था-“यह गूंगे के गुड़ समान है-स्वाद तो है, पर कहा नहीं जा सकता।”
तत्व-ज्ञान की वही स्थिति है-जो समुद्री जहाज के ऊपर बैठे पंछी की होती है। वह पंछी विशाल सागर में दसों दिशाओं में जी भर कर उड़ लेता है, पर अंततः जब उसे थकान महसूस होती है तो उसे विश्राम करने के लिए कोई सहारा या आधार न मिलने के कारण; वह पुनः उसी जहाज पर लौट कर आता है। ऐसी ही सच्चे तत्व ज्ञान की प्राप्ति की लालसा वाले साधक की स्थिति अंततः होती है। जहां साधक का मन हर दिशा में भटकने के बाद उसी ‘जहाज’ में लौट आता है, जो उसका सच्चा आश्रय है-
परमात्मा।
