कुमारी ऋतंभरा
मुजफ्फरपुर (बिहार)
************************************************
टुकड़ों-टुकड़ों में कभी जीती थी बेटियाँ,
किसी कोने में चुपचाप रोटियाँ बेलती थी बेटियाँ।
अपनी आँसुओं को चुपचाप पीती थी बेटियाँ,
अनजाने रिश्तों में बांध दी जाती थी बेटियाँ।
जमाना बदल गया है, अब तो साइकिल से,
खिलखिलाते हर गली-मुहल्लों से निकल स्कूल-कालेज जाती है बेटियाँ।
कभी गुमसुम, आँचल में डरी रहने वाली,
अब अन्तरिक्ष भेद कर भ्रमण करती है बेटियाँ।
आज भी माँ की ममता नजर आती है बेटियों में,
बस अब किसी कोने में दुबक कर नहीं रोती है बेटियाँ।
माँ भी पराई कह कर अजनबी समझती है,
पति भी कह देते हैं पराए घर की बेटियाँ।
अब अपने पैरों पर खड़ी है बेटियाँ,
अपनी पहचान बढ़ा कर, भारत का मान बढ़ा रही बेटियाँ।
राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान बढ़ा रही बेटियाँ,
सच ही कहा है किसी ने-अब किसी के सामने कहाँ हाथ फैलाती है बेटियाँ॥