दिल्ली
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देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली आज जिस घातक पर्यावरण संकट से गुजर रही है, वह केवल एक शहर की समस्या नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए चेतावनी है। विडम्बना यह है कि इस संकट के नाम पर जो तात्कालिक उपाय लागू किए जाते हैं, उनका सबसे बड़ा खामियाजा वही तबका भुगतता है, जिसकी सबसे कम भूमिका होती है-गरीब और श्रमिक वर्ग। इसी पीड़ा को शब्द देते हुए सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि “अमीरों की जीवनशैली से पैदा हुई मुश्किलों का सामना गरीबों को करना पड़ता है।” यह टिप्पणी न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और नैतिक चेतना को झकझोरने वाली भी है। दिल्ली-एनसीआर में बढ़ते प्रदूषण से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश की पीठ ने यह मर्मस्पर्शी टिप्पणी की। अदालत ने स्पष्ट कहा कि ग्रैप-४ जैसी सख्त पाबंदियों का सबसे ज्यादा असर गरीबों पर पड़ता है। निर्माण कार्य रुकते हैं, दिहाड़ी मजदूरों की रोजी-रोटी ठप हो जाती है, जबकि प्रदूषण पैदा करने वाली जीवनशैली में शामिल सम्पन्न तबके पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ता। मुख्य न्यायाधीश ने साफ शब्दों में कहा कि समस्या की जड़ अमीरों की जीवनशैली है और समाधान भी वहीं से शुरू होना चाहिए। उन्होंने भरोसा दिलाया कि अदालत ऐसे प्रभावी और लागू करने योग्य आदेश पारित करेगी, जिन्हें जरूरत पड़ने पर सख्ती से लागू भी किया जा सकेगा।
जस्टिस सूर्यकांत का कहना था कि महानगरों में लोगों की अपनी अलग जीवनशैली होती है, जिन्हें वे बदलना नहीं चाहते। यही वजह है कि समस्या अमीरी की वजह से होती है, लेकिन झेलना गरीब को पड़ता है। दरअसल, अदालत की सोच रही है कि हमारा परिवेश-पर्यावरण साफ-सुथरा रहे, इसके लिए हम सबको अपने कुछ सुखों का त्याग करना होगा, अपने जीवन को पर्यावरण के अनुकूल ढालना होगा एवं प्रकृति-एवं पर्यावरण के प्रति सकारात्मक रवैया अपना होगा। यह जानते हुए कि पर्यावरण पर आने वाले संकट व प्रदूषित हवा का अमीर-गरीब पर समान असर पड़ता है, फिर भी अमीर लोग इससे बेपरवाह रहते हैं। निस्संदेह, शीर्ष अदालत ने समाज की दुखती रग पर हाथ रखा है। चौड़ी होती सड़कें, नए फ्लाईओवर और राजमार्ग बनने के बावजूद जाम और प्रदूषण कम नहीं हो रहे। कारण साफ है, निजी वाहनों का बेहिसाब इस्तेमाल। १ व्यक्ति, १ कार का चलन न केवल सड़क की जगह घेरता है, बल्कि कार्बन उत्सर्जन को भी कई गुना बढ़ाता है। कभी सम-विषम जैसी योजनाओं पर चर्चा हुई, कार-पूलिंग की बात चली, लेकिन सार्वजनिक परिवहन को सस्ता, सुगम और भरोसेमंद बनाने की इच्छाशक्ति लगातार कमजोर रही।
आज ए.सी., कूलर और अन्य वातानुकूलन साधनों का बढ़ता उपयोग भी पर्यावरण संकट को गहराता जा रहा है। इससे बिजली की खपत बढ़ती है, तापमान में वृद्धि होती है और अप्रत्यक्ष रूप से प्रदूषण का दायरा फैलता है। उद्योगों में भी पर्यावरणीय नियमों का ईमानदार पालन नहीं होता। जल संकट इसका एक और क्रूर उदाहरण है-जहां झुग्गी-बस्तियों में पीने के पानी की किल्लत है, वहीं पॉश कॉलोनियों में लॉन सींचे जाते हैं, कारें धुलती हैं और स्विमिंग पूल भरे रहते हैं। कुदरत ने हवा, पानी और संसाधन सभी के लिए दिए हैं, लेकिन अमीरी के असमान दखल ने इनके वितरण को अन्यायपूर्ण बना दिया है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप तो करते हैं, लेकिन ठोस और दीर्घकालिक समाधान सामने नहीं आते।
अब समय आ गया है कि सरकार और जनता-दोनों अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाएं। सरकार को सार्वजनिक परिवहन को मजबूत, सस्ता और आकर्षक बनाना होगा, उद्योगों पर पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन कराना होगा और शहरी विकास की नीतियों को पर्यावरण-संवेदनशील बनाना होगा। जनता को भी अपनी जीवनशैली पर पुनर्विचार करना होगा- अनावश्यक वाहन उपयोग से बचना, ऊर्जा की खपत कम करना, ए.सी. और अन्य सुविधाओं का संयमित इस्तेमाल करना एवं साझा संसाधनों के प्रति जिम्मेदार व्यवहार अपनाना होगा। विडम्बना यह है कि सत्ताधीशों ने दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन को सशक्त करने को प्राथमिकता नहीं दी। यदि ये सस्ता व सहज उपलब्ध होता तो शायद सड़कों पर कारों का दबाव कम होता।
सरकारों की नीतिगत विफलता इस बढ़ते वायु प्रदूषण की त्रासदी का बड़ा कारण है। प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए योजनाएं तो बनती हैं, पर उनमें न तो स्थायित्व होता है, न गंभीरता। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, निगरानी तंत्र कमजोर है, और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर कार्रवाई नगण्य है। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच जिम्मेदारी का बंटवारा अस्पष्ट है। हर साल सर्दियों में दिल्ली और उत्तर भारत के अन्य शहरों की हवा जहरीली हो जाती है, तब कुछ दिन के लिए ‘आपात कदम’ उठाए जाते हैं, पर जैसे ही धुंध छंटती है, सब कुछ फिर पहले जैसा हो जाता है। उद्योगपतियों का दबाव भी एक गहरी समस्या है। कोयला आधारित उद्योगों, पेट्रोलियम कम्पनियों और निर्माण व्यवसाय से जुड़ा खेमा सरकारों पर ऐसा प्रभाव बनाए रखता है, कि कठोर कदम उठाना राजनीतिक दृष्टि से असुविधाजनक बन जाता है। स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण को हमेशा ‘महंगा विकल्प’ बताकर टाला जाता है, जबकि वास्तव में यह निवेश मानव जीवन और पर्यावरण की सुरक्षा में है।
आँकड़े बताते हैं कि वायु प्रदूषण से भारत की अर्थव्यवस्था को हर साल सकल घरेलू उत्पाद का लगभग १० प्रतिशत तक का नुकसान हो रहा है। यह नुकसान केवल पैसों में नहीं, बल्कि मानव संसाधन की हानि, स्वास्थ्य पर बोझ और जीवन की गुणवत्ता में गिरावट के रूप में भी है। अब समय है कि इस संकट को केवल पर्यावरणीय मुद्दा न मानकर एक सामाजिक और नैतिक चुनौती के रूप में देखा जाए। अमीरों को अपनी जीवनशैली पर संयम लाना होगा, अपने निवेशों को स्वच्छ ऊर्जा की ओर मोड़ना होगा, और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से दूरी बनानी होगी। सरकारों को सख्त नीति बनानी चाहिए, जो न केवल प्रदूषण फैलाने वालों को दंडित करे, बल्कि स्वच्छ प्रौद्योगिकी अपनाने वालों को प्रोत्साहन दे।
सरकारें यदि सचमुच राष्ट्र की समृद्धि चाहती हैं, नया भारत-विकसित भारत बनाना चाहती है तो उन्हें साँसों की सुरक्षा को प्राथमिकता देनी होगी। अमीर तबके को भी यह समझना होगा कि जिस हवा को वे अपने निवेशों से दूषित कर रहे हैं, वह अंततः उन्हीं की अगली पीढ़ियों की साँसों को रोक देगी। अमीरी होना कोई अपराध नहीं, लेकिन अमीरी की कीमत अगर गरीब चुकाए, तो वह सभ्य समाज की हार है। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी और सोच हमें यही संदेश देती है कि स्वच्छ पर्यावरण के लिए कुछ सुखों का त्याग अनिवार्य है। यदि आज हमने अपनी आदतें नहीं बदलीं, तो आने वाली पीढ़ियों को हम केवल प्रदूषित हवा, सूखते जलस्रोत और असमानता की विरासत ही सौंप पाएंगे।