पी.यादव ‘ओज’
झारसुगुड़ा (ओडिशा)
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मस्त हवा के झोंकों-संग, उड़ चली अलमस्त मैं पतंग,
शून्यता में लीनता को पाने, तड़प उठा है मेरा अंतर्मन।
जन्म के बंधन से मुक्ति को, विकल हिय का कण-कण,
कर्म-अनुसंधान लिए सिद्धि का, स्वाद चखने को मन।
पंचतत्व से निर्मित है काया, है रंग-बिरंगी मेरे अंग-अंग,
उच्चाकांक्षा की मैं गामिनी, पुलकित है मेरा तन-बदन।
लक्ष्य-भ्रम का भान लिए, देखो! उड़ रही हैं कई पतंग,
जीवन के आकाश में खोए! भटक रहे सब क्षण-क्षण।
आज उड़ी हूँ मैं संग पवन के, ऋण धरा का कर अर्पण,
चाह नहीं पुनः जगत को पाऊं, टूटे डोर-टूटे सब बंधन।
अनभिज्ञ है यहाँ सभी सत्य से, है मोहपाश की जकड़न,
सांसारिकता में भटके सब, भटका है सबका अंत:करण।
व्यक्तित्व निज बचाने को, डोर काट रहे सब हो अनबन,
अस्तित्व से अपरिचित वो, नष्ट कर रहे वो निज जीवन।
संग मेरे तुम उड़ चलो, आओ! करें हम नवीन अनुबंध,
पतंग डोर से टूटे अवश्य!, मिले जीवन को नव-बसंत।
मस्त हवा के झोंकों-संग, उड़ चली मैं अलमस्त पतंग,
शून्यता में लीनता को पाने, तड़प उठा है मेरा अंतर्मन॥