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आओ फिर से प्रेम की डोर में

डॉ. रचना पांडे
भिलाई(छत्तीसगढ़)
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रिश्तों से प्रेम कहाँ गया ?
वो प्यार भरे लम्हे कहाँ,
जो हँसी के फूल खिलते थे…
अब वो मुस्कान कहाँ ?

हर रिश्ता दिखता है खोखला,
प्यार की जगह दिखावा है
अपनों के दिल दूर होते जा रहे,
और हम अनजाने हो रहे।

समय की भाग-दौड़ में हम,
भूल गए अपनों को याद
पहले दिल से जीते थे हम,
अब बस औपचारिकता हर जगह।

रिश्ते अब औपचारिकता बन गए,
प्यार की जगह जिम्मेदारी
अपनों के लिए जीने की जगह,
अब स्वार्थ की दीवारें हैं भारी।

आओ फिर से प्रेम जगाएं,
अपनों के दिल में बसाएं
रिश्तों को संजोएं हम,
फिर से प्रेम की राह पर चलें।

रिश्तों से प्रेम कहाँ गया ?
वो सवाल दिल को छू गया
आओ फिर से प्रेम करें,
और अपनों को अपनाएं।

क्यों खो गए हम प्रेम की राह में ?
क्यों भूल गए अपनों को दिल से ?
आओ फिर से प्रेम की डोर में,
बंधें हम सब अपनों के साथ॥