डॉ. संजीदा खानम ‘शाहीन’
जोधपुर (राजस्थान)
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छुड़ा रहे हैं उंगली मचल- मचल के,
ज़िद माँ से कर रहे हैं देखो बहल- बहल के।
गिरते हैं, उठते हैं खुद पर ये भरोसा है,
चलना वो सीखते हैं खुद ही सम्भल-सम्भल के।
बारिश के बुलबुलों को कैसे-कैसे वो पकड़ते हैं,
पानी में दौड़ते हैं बच्चे उछल-उछल के।
माँ की दुआओं ने क्या जोश भर दिया है,
गिरते हैं संभलते हैं घर से निकल निकल के।
आँखों में उनके अपने सपने नए- नए हैं,
वो ख़्वाब बुन रहे हैं रुख को बदल-बदल के।
आँधी हो या तूफां ये अब नहीं रुकेंगे,
फौलाद ये बनेंगे खुद ही पिघल-पिघल के।
‘शाहीन’ गोद में जो माँ की रहे थे अब तक,
निकले हैं आज घर से देखो सँभल-सँभल के॥