धर्मेंद्र शर्मा उपाध्याय
सिरमौर (हिमाचल प्रदेश)
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कहाँ गया रिश्तों से प्रेम…
चकाचौंध दुनिया ने सबको,
हे आज कैसा भरमाया
कोई किसी का नहीं यहाँ,
सब है स्वार्थ और छलावा।
सब अपनों तक सीमित रहते,
नहीं रिश्तों का किसी को ध्यान
ओझल हो रही अपनी संस्कृति,
बन रहे आज सभी विद्वान।
पिता-पुत्र को जीना सिखाए,
माता-पुत्री को देती सीख
दादा-दादी की प्यारी कहानी,
सुनकर सबको करती गंभीर।
चाचा-चाची, जेठ-जेठानी,
या हो गुरु-शिष्य का संबंध
प्रेम बिक रहा है पैसे में,
मोल-भाव करते हरदम।
भाई-भाई का वो प्रेम जो,
करता दुःखों का संहार
बहन-बहन का वो प्रेम जो,
माँ-सी बनकर देता संसार।
जीजा-साला जहां भी मिलते,
करते खूब अटखेलियाँ हजार
समय ने कैसा बांधा सबको,
प्रेम रिश्तों में कहाँ है आज ?
जीव-जंतु प्रकृति के प्रेमी,
नहीं छोड़ते हैं अपना काम
सूरज-चंदा प्रेम में बंधकर,
देते सबको खूब वरदान।
बिन प्रेम जीवन है सूना,
बुद्धि का जो करता ह्रास।
भारत की प्यारी संस्कृति से,
कहाँ गया रिश्तों में प्रेम महान ?