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आदमी अब प्यार के क़ाबिल ही नहीं

सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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चाहती हूँ मैं लिखूँ ख़त मगर मैं कैसे लिखूँ,
ज्ञात मुझको तो तेरा ठौर-ठिकाना ही नहीं
देखना चाहूँ तुझे कैसे मैं दीदार करूँ,
कैसे एतबार करूँ कुछ भी तो मालूम नहीं।

ये बता तुझको पुकारूँ मैं कहाँ पर जाकर,
भेजूँ संदेश कहाँ जब कोई पता ही नहीं
है जमाने की नज़र बदली हवा बदली हुई,
हाल किस-किस के कहूँ क़ाबिले तारीफ़ नहीं।

अस्मतें बिक रही हैं आज खुली सड़कों पर,
सभ्यता हो रही नंगी इन्हें कुछ ग़म ही नहीं
कैसा इंसाफ़ यहाँ है यक़ीं आता ही नहीं,
न्याय-क़ानून का तो नामोनिशान है ही नहीं।

हँसते और खेलते बच्चे नहीं लगते अच्छे,
मुस्कुराते हुए फूलों से इन्हें प्यार नहीं
धर्म-ईमान है बस झूठ मुनाफ़ाख़ोरी,
फक्र इनको है को कोई इनके बराबर ही नहीं।

जिनके है लाल हाथ बेगुनाहों के खूँ से,
कोई मायूसी नज़र चेहरे पर आती ही नहीं।
दोष भी तुझको अगर दूँ तो भला कैसे दूँ ?
जबकि है आदमी अब प्यार के क़ाबिल ही नहीं॥