डॉ. संजीदा खानम ‘शाहीन’
जोधपुर (राजस्थान)
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रातें रूठीं दिन है दुश्मन, आया भला ज़माना कैसा,
एक अजब सा दु:ख है मेरा, दर्द है ये अनजाना कैसा।
आँखें सूनी, सपने टूटे, आहों पर भी पहरा है,
अपने ही घर में कैद हुए हैं, क़ैद में ही मर जाना कैसा।
फूल चुभे हैं, काँटे महके, मौसम कुछ दीवाना है,
कुदरत भी अब साथ नहीं, उससे मेरा याराना कैसा।
साँसों में तेरी खुशबू है बातों में तेरी है जादू,
तू खुद में एक ग़ज़ल के जैसी कोई भी गीत तराना कैसा।
रात उजालों से डरती है, दिन में अंधेरा है ये कैसा,
मंजिल अपनी दूर बहुत है, दूरी से घबराना कैसा।
‘शाहीन’ ने सबसे वफ़ा की, बदले में उसको दगा मिला,
बीच डगर पे साथ जो छोड़े, उससे साथ निभाना कैसा॥