डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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‘भारतीय भाषा दिवस’ (११ दिसंबर) विशेष…
तमिल भाषा के सुप्रसिद्ध कवि महाकवि चिन्नास्वामी सुब्रह्मण्यम भारती (‘महाकवि भारतियार’) को भारत और भारतीय भाषाओं की एकात्मता के लिए याद किया जाता है। सुब्रह्मण्यम भारती का जन्म ११ दिसंबर १८८२ को तमिलनाडु के तूतुकुड़ी ज़िले के एट्टयपुरम् गाँव में हुआ। पिता चिन्नास्वामी अय्यर तमिल भाषा के विद्वान थे इसलिए सुबैय्या को भाषा-प्रेम विरासत में मिला। भारती तमिल, संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी के अतिरिक्त तेलुगु, फ्रेंच और अरबी जैसी भाषाओं से भी परिचित थे, पर मातृभाषा तमिल उन्हें सबसे प्रिय थी। वे न केवल एक महान साहित्यकार, बल्कि एक संगीतकार, समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और अनुवादक भी थे। वे उत्तर भारत व दक्षिण भारत के मध्य भाषा-सेतु की तरह थे। वे उन कुछ साहित्यकारों में थे जिनका गद्य और पद्य दोनों विधाओं पर समान अधिकार था। मात्र ७ साल के सुबैय्या तमिल में कविताएँ लिखने लगे थे। ११ वर्ष की बाल्यावस्था में वे ऐसी कविताएँ लिखते, कि लोग दांतों तले उंगली दबा लेते थे। वे विद्यालयीन पढ़ाई में तो सामान्य थे, परंतु भाषा का तो जैसे वरदान था। उसी समय उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना घटी। उन्होंने एट्टायापुरम् दरबार में तमिल विद्वानों से भरी सभा में ‘शिक्षा’ विषय पर वाद-विवाद में अभूतपूर्व विजय पाई। इस प्रदर्शन के बाद बालक ‘एट्टयपुरम् सुबैय्या’ को माँ सरस्वती के एक नाम ‘भारती’ से जाना जाने लगा। कुछ समय बाद बहुत कम उम्र में वे अपनी बुआ के पास वाराणसी चले गए, जहाँ उनकी निकटता आध्यात्म और राष्ट्रवाद से हुई। इसका उनके जीवन पर काफ़ी प्रभाव पड़ा और उनकी सोच में काफ़ी बदलाव आ गया। ४ साल के बनारसवास में भारती ने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा का अध्ययन किया। वे अंग्रेज़ी भाषा के कवि ‘शेली’ से प्रभावित थे। भारती बनारस से एट्टयपुरम् लौट कर २ साल महाराज के दरबार में रहे, पर जल्दी ही वहाँ के तौर-तरीकों से ऊब गए। अपने जीवन के अनेक वर्ष उन्होंने पत्रकारिता की। वे कई समाचार पत्रों के प्रकाशन और संपादन से जुड़े रहे। इनमें तमिल दैनिक ‘स्वदेश मित्रम’, अंगेजी साप्ताहिक ‘बाला भारतम’ और तमिल साप्ताहिक ‘इंडिया’ शामिल हैं। इन पत्रों के माध्यम से वे निरंतर जन-जागरण करते रहे। उस समय उनकी रचनाधर्मिता चरम पर थी। उनकी रचनाओं में जहाँ एक ओर जहाँ गूढ़ धार्मिक बातें होती थीं, वहीं दूसरी ओर रूस और फ्रांस की क्रांति आदि वैश्विक परिवर्तनों की बात भी होती थी। इस दौरान वे समाज के निर्धन लोगों की बेहतरी के लिए भी कार्य करते रहे।
उनकी कविताओं में राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी हुई है। वे तमिल जनमानस में स्वतंत्रता और राष्ट्रीय -चेतना के वाहक बने। भारती ने लोकमान्य तिलक, अरविन्द तथा अन्य नेताओं के गरम दल का समर्थन किया। इसके बाद वह पूरी तरह राजनीतिक लेखन और राजनीतिक गतिविधियों में शामिल हो गए जिसके कारण १९०८ में उनकी गिरफ्तारी भी की जाने वाली थी।
भारती ने पांडिचेरी में १० वर्ष वनवासी की तरह बिताए। इसी दौरान उन्होंने कविता और गद्य के जरिए आजादी की भावना को गुंजायमान किया।‘साप्ताहिक इंडिया’ द्वारा भारत की स्वतंत्रता, जाति भेद को समाप्त करने और राष्ट्रीय जीवन में नारी मुक्ति के लिए वे कार्य करते रहे। वे अपने गीतों के माध्यम से अंग्रेजों के खिलाफ लोगों में देशभक्ति की अलख जगाते रहे। उनकी रचनाओं से प्रेरित होकर दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में लोग स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे।मद्रास में एक मंदिर के हाथी से लगी चोट के कारण ११ सितंबर १९२१ को निधन हो गया। भारती ४० साल से भी कम समय तक जीवित रहे और इस अल्पावधि में भी उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में बहुत अधिक काम किया। उनकी समाजसेवा, देशप्रेम, भारत की एकात्मता के कार्यों और उनकी रचनाओं की लोकप्रियता ने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया।
संगीत के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनके कर्नाटक संगीत के कुछ गीत आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। भारती की सबसे प्रसिद्ध कृतियों में कन्नन पांतु (कृष्ण के गीत), पांचाली सपथम (पांचाली की शपथ) और कुयिल पातु (कोयल का गाना) शामिल हैं। भारती की रचनाओं पर प्रतिलिपि अधिकार का विवाद सुलझा कर उनकी रचनाओं को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर जनमानस को समर्पित किया गया। यह भारतीय साहित्य में अनूठी मिसाल है। भारत सरकार ने १९८७ में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ सर्वोच्च राष्ट्रीय ‘सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार’ की स्थापना की, जो हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट कार्यों के लेखकों को प्रतिवर्ष दिया जाता है।
चिन्नास्वामी सुब्रह्मण्य भारती आजादी प्राप्त करने और उसकी रक्षा के लिए ३ चीजों को मुख्य मानते थे, बच्चों के लिए विद्यालय, कल-कारखानों के लिए औजार और अखबार छापने के लिए कागज। उऩका कहना था कि किसी एक गरीब को अक्षर का ज्ञान प्रदान करना, करोड़ों गुणा अधिक पुण्य का कार्य है। उन्होंने महिलाओं की मुक्ति के आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
सुब्रमण्यम भारती तमिल के महाकवि थे, लेकिन सभी भारतीय भाषाओं को सम्मान देते थे और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को आवश्यक मानते थे। उनका कहना था, ”जबकि हमारे लिए तमिल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है भारत विभिन्न क्षेत्रों का देश है फिर भी यह एक पूर्ण इकाई है। इसी प्रकार प्रत्येक क्षेत्र की भिन्न भाषा है किंतु संपूर्ण भारत के लिए एक समान भाषा आवश्यक है। यदि तमिलियन तमिल और हिंदी जानते हैं, यदि आंध्र के लोग तेलुगू और हिंदी जानते हैं, यदि बंगाली, बांग्ला और हिंदी जानते हैं तो हम एक राष्ट्र के रूप में एक समान भाषा पाते हैं।”
सुब्रह्मण्यम भारती का मानना था कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। स्वतंत्र रूप से सोचना-विचारना केवल मातृभाषा के माध्यम से ही संभव हो सकता है और उसी राष्ट्र की शिक्षा प्रणाली सफल हो सकती है, जो मातृभाषा के माध्यम से दी जाएगी। विलायती भाषा द्वारा पढ़ाई से राष्ट्रभाषा मन्द पड़ने लगेगी और कालान्तर में मिट ही जाएगी। आज की शिक्षा मस्तिष्क के विकास की है, जबकि मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए आत्मा का विकास महत्वपूर्ण है। हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जिसके द्वारा हम अपने अतीत के साथ न्याय करते हुए भविष्य की माँग के अनुरूप बन सकें।
स्वतंत्रता सेनानी चिन्नास्वामी सुब्रह्मण्यम भारती के राष्ट्र और भारतीय भाषाओं की एकात्मता के इस महान योगदान को देखते हुए भारत सरकार द्वारा उनके जन्मदिन, ११ दिसंबर को ‘भारतीय भाषा दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय किया गया था। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा भी सभी महाविद्यालयों को इसे मनाने का निर्देश दिया गया था, जिसके अनुसार देश के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों व स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा में दिवस आयोजित किया जाता है। भारतीय भाषा-सेतु सुब्रमण्यम भारती के जन्मदिवस को भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाए जाने से न केवल भारतीय भाषाओं की एकात्मता को बल मिलेगा, बल्कि राष्ट्रीय एकता भी मजबूत होगी। सुब्रमण्यम भारती के लेखन और राष्ट्रीयता के कार्य से न केवल आगामी पीढ़ियों को, बल्कि आज के साहित्यकारों, लेखकों व राजनेताओं को भी राष्ट्रीय एकात्मता, भाषायी सद्भाव व देशप्रेम की सीख लेने की आवश्यकता है।
भाषा मानव के उन्नत बनने की दिशा में प्रथम कदम कहा जा सकता है। आरंभ में संकेतों की भाषा रही होगी जो कालांतर में शब्द संवाद में परिवर्तित हुई। हर परिस्थिति परिवेश एक दूसरे से अपरिचित और भिन्न था, इसलिए हर मानव समूह ने अपने ढ़ंग से कुछ शब्द संकेत बनाए। एक-दूसरे से कुछ मील से हजारों मील तक की दूरी में रह रहे समूहों द्वारा विकसित किए गए इन संकेतों और शब्दों में एकरूपता का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। अतः हर कबीले की अपनी भाषा होना स्वाभाविक है जो आज भी तथावत है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समय के साथ लगभग सभी भाषाओं, बोलियों में परिवर्तन, परिष्कार भी जारी रहा क्योंकि हर द्वीप, महाद्वीप में केवल प्रकृति आपदाओं और परिवर्तनों से ही नहीं, अपितु मानव निर्मित परिस्थितियों और आविष्कारों को व्यक्त करने के लिए भी नये शब्द अथवा संकेत चाहिए थे। यह प्रक्रिया सतत जारी है, लेकिन आज हमारा परस्पर सम्पर्क और संवाद बढ़ा है इसलिए एक-दूसरे की भाषा का प्रभाव होना स्वाभाविक है। क्षेत्र विशेष के निवासियों का अपनी बोली-भाषा से अनुराग होता ही है। यह भाव उस क्षेत्र की विशिष्ट संस्कृति के जीवन्तता की गारंटी भी है।
भाषा को संस्कृति की संवेदन तंत्रिका भी कहा जा सकता है, क्योंकि उससे जुड़ा हर शब्द अपने साथ एक लंबा इतिहास लेकर चलता है। विभिन्न अवसरों पर प्रयुक्त होने वाले शब्द, संवाद, गीत उस भाषा और उसे मानने वाले समाज की संस्कृति के परिचायक है। सांस्कृतिक भिन्नता होगी तो भाषा और उसके शब्दों और उसे अभिव्यक्त करने के ढ़ंग में भिन्नता होना संभव है। इसलिए हर बोली अथवा भाषा महत्वपूर्ण है क्योंकि वह एक विशिष्ट संस्कृति की वाहिका है। उसका संरक्षण होना ही चाहिए।
विश्व के आदि ग्रन्थ ऋग्वेद के अनुसार –
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीनिर्हिताधिवाचि।।
अर्थात् धीर पुरुष वाणी को चलनी में छने हुए सत्तू के समान रच कर उच्चारित करते हैं। उनकी वाणी में उनका सख्य भाव ज्ञात होता है। उनकी वाणी में लक्ष्मी (पवित्र गुण) प्रतिष्ठित होती है। हमारा सौभाग्य है कि हम उस भारत के वासी हैं जो अपनी बहुरंगी भौगोलिक, सांस्कृतिक, खान-पान, रहन-सहन, आस्था, मान्यताओं की विविधताओं से समृद्ध है। यहां लगभग हर मौसम है। बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियां हैं तो तपते रेगिस्तान भी हैं। तीन तरफ महासागर हैं तो पठार है। नदियों का जाल है। घने जंगल हैं। विशाल मैदान हैं। अर्थात् प्रकृति प्रदत्त विभिन्न परिस्थितियां हैं। हर दो कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है तो बोली भाषा के उच्चारण में भी परिवर्तन देखने को मिलता है। इसीलिए हमारे देश में 1600 से अधिक बोलियां और भाषाएं है। विशेष यह कि भारतीय भाषाओं में मूलभूत एकता है। उच्चारण भिन्नता के बावजूद भारत भाषाओं में बहुत साम्य है। हर भारतीय के लिए सारी बोलियां-भाषाएं अपनी है। सदियों से हमारी संस्कृति व लोकजीवन की अविरल धारा हमारी बोलियों-भाषाओं के माध्यम से में सुरक्षित-संरक्षित रही है। संस्कृति की प्राणवायु बनकर उसे विकसित करने में जिस लोक गीतों से लोककथाओं और लोक परम्पराओं का अतुलनीय योगदान है, वे हमारी भाषायी विविधता में समाहित है। विशेष यह कि सभी भारतीय भाषाओं की साहित्यिक पृष्ठभूमि प्रायः समान है। संत काव्य की समान प्रवृत्ति है। हमारे संविधान की आठवीं सूची में असमिया, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। वास्तव में भारत की सभी भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं।
आधुनिकता के दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए सम्पर्क, संवाद बढ़ा है इसलिए एक-दूसरे की भाषा सीखना परिस्थितियों की मांग है। यह सत्य है कि किसी के लिए भी विश्व तो दूर अपने देश की सभी बोलियां-भाषाएं सीखना संभव नहीं है इसलिए एक सम्पर्क भाषा की आवश्यकता महसूस हुई। यह सत्य है कि किसी भी भाषा को सब पर थोपा नहीं जा सकता लेकिन विदेशी भाषा अंग्रेजी कभी भी सम्पर्क भाषा नहीं हो सकती।
आप हिंदी, मराठी, पंजाबी, कन्नड़, तेलुगु अथवा किसी भी भाषा के हो लेकिन क्या आज आप ‘दुरन्तो’ का अर्थ जानते हो या नहीं ? एक बंगला शब्द अखिल भारतीय हो सकता है तो जबरदस्ती घुसेड़े अंग्रेजी शब्दों के स्थान पर ऐसा किया जा सकता है। यह हमारी भाषाओं-बोलियों के साथ छल है। भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाकर अंग्रेजी को सदा के लिए राजभाषा बनाने के उस षड़यंत्र को समझना होगा।
प्रसिद्ध तमिल महाकवि और स्वतंत्रता सेनानी सुब्रमण्यम भारती हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के उन्नयन के लिए प्रयत्नशील रहे। तमिलनाडु से चलकर वाराणसी में शिक्षा ग्रहण करने वाले उस महाकवि ने राष्ट्रवाद की भावना से ओत-प्रोत ज्वलंत गीत रचकर हम सभी को आपसी मतभेद भूल सशक्त भारत के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने के लिए प्रेरित किया।
यह प्रसन्नता की बात है कि सुब्रमण्यम भारती के जन्मदिन को भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है। सुब्रमण्यम जी की भावना के अनुरूप भाषाई सदभाव को बढ़ावा दते हुए भारतीय भाषाओं की विविधता को विरोधाभास नहीं, समृद्धि मानते हुए भारतीय भाषा दिवस को उत्सव के रूप में मनाना चाहिए। वास्तव में भारत की सभी भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं। भारतीय भाषा दिवस के अवसर पर हम सभी को हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के सम्मान की रक्षा के लिए संकल्पित होना चाहिए। यह प्रसन्नता की बात है कि नई शिक्षा नीति में प्राथमिक कक्षाओं तक मातृभाषा को अनिवार्य बनाया गया है।
