सुनीता रावत
अजमेर(राजस्थान)
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हर किसी के भीतर,
एक गीत सोता है
जो इसी का प्रतीक्षमान होता है,
कि कोई उसे छू कर जगा दे
जमी परतें पिघला दे
और एक धार बहा दे…।
पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत,
प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत
जिसे मैंने बार-बार जाग कर गाया है,
जब-जब तुमने मुझे जगाया है…।
उसी को तो आज भी गाती हूँ,
क्योंकि चौंक-चौंक कर रोज़
तुम्हें नया पहचानती हूँ,
यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानती हूँ॥