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औलादों पर कितना गुमान!

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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हम जितने विकसित हुए,उतने हृदयहीन भी गए। पति-पत्नी,माँ-बाप बनने के पहले और शादी के बाद यदि संतान नहीं होती तब पारिवारिक सामाजिक उलाहना झेलते हैं। उसके बाद चिकित्सक,यहाँ-वहाँ देवी-देवताओं के चक्कर और फिर पूजा-पाठ करते हैं। उस समय यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि लड़की हुई या लड़का। उनके लालन- पालन में वे अपना सर्वस्य निछावर करते हैं। उनका लक्ष्य मात्र होता है कि योग्य संतान बने,बस इसी समय माता-पिता से चूक होना शुरू हो जाता है।

इस समय संतान मानवीयता के साथ संस्कारी व
अच्छी योग्य बने,आज इन मूल्यों की कमी होने से वे पारिवारिक दायित्व से शून्य और अपने भविष्य निर्माण में व्यस्त हैं। यदि माँ-बाप दोनों सेवारत हैं तब वे बच्चों को वांछित समय नहीं दे पाते और यदि माँ गृहिणी है तो वह अपने बच्चों के प्रति बहुत गंभीर रहकर साजो-सेवा करती है। वो गृह कार्यों से जान-बूझकर दूर रखती है,जबकि इसी उम्र में उसे सहयोगी अवश्य बनाएं। पिता निर्धारित समय दे पाते हैं और माँ उतनी पढ़ी-लिखी न होने से बच्चे मनमानेपन के साथ उन्हें दकियानुसी और पुरातनपंथी मानकर दरकिनार कर देते हैं।
फिर संतान को योग्यता में प्रावीण्यता मिलने पर महानगर या विदेश जाने के अवसर पर माँ-बाप बहुत गौरवान्वित होते हैं,जबकि बच्चे पढ़ने-लिखने या नौकरी करने घर से बाहर निकले तो वे पराए होने लगते हैं। यदि आपने उनको शुरुआत से संस्कारित नहीं किया तो मान कर चलें कि,वे पूरी तरह से पराए और हृदयहीन होने लगते हैं। कारण ‘गंगा गए गंगा दास और जमुना गए जमुना दास’ यानि जिस जगह पर रहने लगते हैं,वहाँ के वातावरण में रह पच जाते हैं। जब तक उनकी शादी नहीं होती,तब तक कृत्रिम लगाव होता है,और कभी-कभी वे छिपकर विवाह कर अपनी संतान पैदा होने की सूचना देकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करते हैं।
संतान की इस उम्र में स्वाभाविक रूप से माँ-बाप का बुढ़ापा आना स्वाभाविक है और इस समय उनको अपनी संतानों की सहयोग की अपेक्षा रहती है। दुर्भाग्य से माँ-बाप में से किसी की वृद्धावस्था में मृत्यु होने पर संतानों की गिद्ध दृष्टि उनकी सम्पत्ति पर रहती है। यह प्रलोभन भी दिया जाता है कि आपकी अब पूरी सेवा की जिम्मेदारी हम निभाएंगे। बच्चे बहुत समय से एकल और स्वतंत्र रहने से उनकी मानसिकता माँ-पिता नहीं समझ पाते हैं। यह बहुत चिंतनीय मोड़ होता है। यदि माँ-बाप ने जीवनभर की कमाई इस समय बच्चों को सौप दी,यानी अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। बच्चों की यह सेवा तात्कालिक रहती है,उसके बाद उनके संस्कार जो आपने अपने लाड़-प्यार में नहीं दिए,वे दिखने लगते हैं। इस दौरान आपको उनके अनुसार रहना पड़ेगा या पड़ता है। भले ही आप अपना मन मसोसकर जिएं या मरें।
एक नज़ीर सामने आई कि,-एक व्यक्ति की एक ही संतान वह भी पुत्री थी। उसकी शादी के बाद एकांत में पिता अपना जीवन-यापन कर रहा था। पिता की मृत्यु अचानक हो गई तो रिश्तेदारों ने उनकी पुत्री को,जो अन्य शहर में रहती थी,समाचार दिया। बेटी बोली,अंकल मैं तो नहीं आ पाऊँगी,आप उनका वीडियो भी देना। तीसरे दिन बेटी ने कहा, अंकल उनकी अस्थि कलश कोरियर से भेज देना।मैं यहीं सब क्रिया-कर्म कर लूंगी।
अपने घर में रहने से वहाँ जान-पहचान और परिचित जगह होने से अकेले होते हुए भी एकाकीपन नहीं लगता,पर यह आशा नहीं थी कि, औलाद इस प्रकार का व्यवहार करेंगी। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि बच्चों को अपनी नौकरी- व्यापार करना होगा,वह उनकी पहली प्राथमिकता होगी। हमारे पालन-पोषण में हमने उन्हें एकाकी बनाया,न किसी से मिलना-न जुलना,अपनी अहमियत। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं-बुजुर्गों की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं और बच्चों की अपनी। इन सबके बावजूद औलादों को अपने कर्तव्यों को नहीं भूलना चाहिए।
बुजुर्ग व्यक्ति की अधिकतम उम्र में १० साल का इजाफा होगा और । बच्चे १ साल या २ साल में ५ दिन के लिए मिलने आएं तो माँ-बाप को प्रसन्नता होती है और जाने के बाद आगामी वर्ष की योजना बनाते हैं। इस प्रकार १० वर्ष में कुल ५० दिन के लिए वे अपने १० वर्ष बिता देते हैं। और बच्चों को अपनी औपचारिकता के वास्ते आना पड़ता है। इस पर अनेक पहलू विचारणीय हैं,तर्क अनंत हैं पर सच्चाई यही है कि बच्चे में अंतर-परिवर्तन आने से अब बुजुर्ग सोचते हैं कि इस अवस्था के पहले हम भी स्वर्गीय हो जाएं,लेकिन यह हर के लिए लागू नहीं होता,पर सामान्यतः यही स्थिति वर्तमान में है।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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