डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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उदयाचल के उत्तुंग शिखर से,
बिखरती धरा पर अरुणाई-सी
चहचहाती भोर में, पंछियों के गीतों-सी,
मंद-मंद वायु तरंग से जैसे
सुरभित होता है कण-कण,
मेरे आँगन को महकाती…
काश! मुझे भी बेटी होती।
छोटे-छोटे क़दमों से,
रुन-झुन की आवाजें आती
कभी भागती माँ के पीछे,
कभी आँचल में आ छुप जाती रजनी में जलते दीए-सी,
जीवन को रोशन कर जाती…
काश! मुझे भी बेटी होती।
लम्बे, घने उलझे केशों को,
सुलझाने जब-जब माँ जाती
मीठे-मीठे बोलों से वह,
कभी हँसाती और रुलाती।
मौन वेदना को कर झंकृत,
पलभर में शीतल कर जाती…
काश! मुझे भी बेटी होती॥