सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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विकास के शीर्ष पर खड़े होकर जब नज़र घुमाती हूँ तो चमचमाते अनेक प्रशंसनीय पायदानों के नीचे कहीं, अंधेरी… कालिख पुती हुई कुरीतियाँ दृष्टिगोचर होती है। कुछ तो इतनी अविश्वसनीय और हेय होती है कि, आज की उपलब्धियों, सफलताओं पर यक़ीन करना, प्रसन्न होना मुश्किल हो जाता है। मन इतना उचट जाता है, कि आखिर… आखिर किस चीज़ को पाने की खातिर, ये तर्कहीन दौड़ जारी है…?? आखिर धरती की पूर्ण विकसित श्रेष्ठ सभ्यता कौन-से विकास को पाने के लिए पतन की इतनी गहरी खाई में गिरती चली जा रही है।
चाँद को छूने वाली सभ्यता, इंसानियत के सहज मूल गुणों का किस प्रकार तिरस्कार करती जा रही है, विश्वास नहीं होता। क्या पाना चाहते थे और किस रास्ते चलते जा रहे हैं, किसी को भान ही नहीं है।
एक बार… केवल एक बार विचार करके देखिए कि, यदि ये विकास, भौतिक, आध्यात्मिक और मानवीय… तीनों दृष्टियों से हुआ होता तो सच में हम सफलता के उत्तम, लोकहित और सुनहरे शीर्ष पर विराजमान होते। ये सफलता इंसानियत के पग चूमती… यदि ये धरा बच्चों… स्त्रियों… बुजुर्गों की खुशहाली और मानवीय-मूल्यों से ओत-प्रोत होती। कितना सुखद, शांतिपूर्ण अहसास है ये…!!
कुरीतियों के कटघरे में सहमते, रोज घटते नित-नए अपराध, स्त्रियों संग निर्मम बलात्कार, तलाक, वृद्धाश्रम, अपहरण इत्यादि के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक विषयों पर बढ़ती धन-दौलत के दिखावे की मंशा, गिरता रहन-सहन, विभिन्न नाटकों, फिल्मों द्वारा परोसी जा रही संस्कारहीन अपशब्दों से भरी भाषा… आज देश के प्रत्येक उम्र के लोगों को अपने जाल में उलझाती जा रही है। लोक-लाज की सामाजिक मर्यादाएं तड़तड़ाकर टूटती जा रही हैं और सब बुद्धिजीवी, पांडव सभा के महान योद्धाओं की तरह मौन खड़े विकास का जश्न मना रहे हैं।