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केशव को पाती…

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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तिलमिला उठी आज विश्व धारा फिर केशव,
झूठ, फरेब, आनाचारों और व्यभिचारों से
न्यायालय ही ठहराते व्यभिचारों को वैध,
फिर क्या उम्मीद करेगा कोई इन सरकारों से ?

तब रावण-कंस थे मात्र एक-एक,
अब जन्मे लाखों कृतघ्न, क्रूर अन्यायी
तब आक्रांताओं से सताता डर था शायद,
आज तो अपने ही बने हैं दुष्ट आततायी।

न शर्म रही, न कोई हया अब केशव,
चहुं ओर निर्लज्जता ही छाई है
आज रही न बहनों से हमदर्दी किसी को,
न ही तो बहनों को प्रिय अब भाई है।

माता-पिता की कद्र गई अब,
और गया गुरुओं का सम्मान
तुमको भी अब मानता कौन है केशव ?
अब तो सबसे बड़ा है विज्ञान।

तुम कह गए थे कि मैं आऊंगा,
उस उम्मीद पर दुनिया टिकी है
हाल बताने को इस दुनिया का,
यह पाती तुमको लिखी है।

रात घनेरी निकल जाएगी,
फिर से उजाला छाएगा
सूरज अपनी अरुणिम किरणें,
फिर से धरती पर ले आएगा।

होता रंग कहाँ बरसाती पानी में?
फिर भी धरती पर रंगत लाता है
त्यूं अदृश्य तुम अण्ड-ब्रह्मांड में,
अवतारों में खुद को प्रकटाता है।

यह धरा डूबेगी दलदल में जब,
फिर क्या तब तुम केशव आओगे ?
विकल मानस और व्यथित धरा को,
अब कितना और तुम सताओगे ?