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क्यों भागे रे मन ?

ऋचा गिरि
दिल्ली
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क्यों भागे रे मन ?
दौड़े जाए रह ना पाए,
ढूंढे हर आँगन
बिलख-बिलख कर ताके-झाँके,
रह-रह जाए वन।

ठहरे हुए जल में मारे
जैसे कोई कण,
नाचता हुआ दिखे
नहीं लगता मलंग-मलंग,
क्या बीती ? कैसी नीति ?
जब उठना जलतरंग,
क्या ऐसी ही प्रकरण ?
क्यों भागे रे मन…?

मुंडेर पर चढ़कर अँखियाँ मींचे
प्रच्छन्न-सा क्रंदन,
कहता जाए कौतूहल-सा
आ जाए वही क्षण
क्यों भागे रे मन…?

गुजरी हुई गलियों में छोड़ा
सब्र का वह क्षण,
जहाँ थिरकता पाँव था
वर्षा देख छम-छम,
भूली-भटकी फिर से पहुँची
उन्हीं गलियों जहां मन,
न जाने कहाँ गया वह
हुआ नहीं मिलन।

किसने देखा!
मरीचिका ?
समझाऊँ कर आकलन,
हाथ पकड़ खींचे ताने
बोले, नहीं करना अनुपालन,
फटकारूँ, फुसलाऊँ इसको
कितने किए जतन,
बड़ा हठी यह मनमाना
बोले, मैं तेरा हीरा मन।

सौंप दिया अम्बर को मैंने
अपना सब तर्पण,
देखा जब तट लहरों को
उफन-उफन उठ गिरते,
करते चंदा से मिलन
क्या अद्भुत यह दर्शन!
क्या मन की यही लगन ?
क्यों भागे रे मन…?