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खतरनाक चुनौती है पलायन एवं बढ़ता शहरीकरण

ललित गर्ग

दिल्ली
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भारत में बढ़ता शहरीकरण भले ही विकास का आधार हो, लेकिन इसने अनेक समस्याओं को भी जन्म दिया है। बढ़ता शहरीकरण केवल भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के लिए एक बड़ी चुनौती बन रहा है। वर्तमान में दुनिया की कुल आबादी में से ५६ फीसदी शहरों में रहने लगी है। गाँवों से शहरों की ओर पलायन हो रहा है। यह प्रवृत्ति जारी रही तो २०५० तक शहरी आबादी अपने वर्तमान आकार से दोगुनी से भी अधिक हो जाएगी। भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनाने एवं नया भारत-विकसित भारत बनाने के लिए शहरीकरण पर बल दिया जा रहा है। एक विडम्बनापूर्ण सोच देश के विकास के साथ जुड़ गई है कि, जैसे-जैसे देश विकसित होता जाएगा, वैसे-वैसे गाँव की संरचना टूटती जाएगी। निश्चित ही जब भी शहरों में कोई नई कॉलोनी विकसित होती है, तो हमें यह स्वीकारना ही होगा कि किसी न किसी गाँव की कुर्बानी हुई है। विडम्बना एवं त्रासदी है कि, जिन्हें शहर कहा जा रहा है वहाँ अपने संसाधन से वंचित लोगों की बेतरतीब, बेचैन और विस्थापित भीड़ ही होगी।
कुछ समय पूर्व स्विट्ज़रलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक मंच का सम्मेलन मे यह बात उभर कर सामने आई कि, शहरों के विकास को ही भारत के विकास की धुरी माना जा रहा है। यह सही भी है, क्योंकि किसी भी आधुनिक और विकासशील अर्थव्यवस्था में शहरों को विकास का सबसे बड़ा वाहक माना जाता है। भारत में नवीन भारत की पहल के विचार को आगे बढ़ाने की कड़ी में शहरी बुनियादी ढाँचों में सुधार के समग्र दृष्टिकोण को अपनाए जाने की अपेक्षा है। शहरी विकास की इस प्रक्रिया ने गाँवों के सामने अस्तित्व का संकट उत्पन्न कर दिया है। शहरों का अनियोजित विकास, महानगरों का असुरक्षित परिवेश, पर्यावरण की समस्या, बढ़ता प्रदूषण, जल का अभाव एवं शहरी संस्कृति में बढ़ते जा रहे संबंधमूलक तनाव हमें यह सोचने पर विवश करते हैं कि, शहरी विकास की अवधारणा पर एक बार फिर से विचार किया जाना चाहिए। विभिन्न प्रकार के प्रदूषण उत्पन्न करने में गाँवों की तुलना में शहरों की भूमिका अधिक है, तो क्या यह कहा जा सकता है कि विकास और प्रदूषण का एक-दूसरे के साथ सकारात्मक संबंध है ? बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएँ और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि, देश में १ लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या लगभग ३५० हो गई है, जबकि १९७१ में ऐसे शहर मात्र १५१ थे। यही हाल १० लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि, शहरीकरण को विकास का पैमाना माना जाता है। शहरों में गाँवों की तुलना में अधिक साधन, सुविधाएँ, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा दूसरे शब्दों में आधारभूत सुविधाएँ अधिक होती हैं। यह भी सच है कि, ये सभी को नसीब भी नहीं होती। रोजगार के लिए गाँवों से आने वाले बहुत सारे लोगों को कच्ची बस्तियों, चाल या १-२ कमरे में किराए पर रहने को बाध्य होना पड़ता है। शहरों में बुनियादी सुविधाओं के बावजूद सामाजिक और पर्यावरणीय क्षेत्र पर खासा नकारात्मक प्रभाव देखा जा सकता है। असल में देखें तो संकट वायु प्रदूषण का हो या जंगल का या फिर स्वच्छ जल का, सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है, जिससे शहर रूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है। और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और उसकी नैसर्गिकता। इसके कारण मनुष्य की साँसें उलझती जा रही है, जीवन पर संकट मंडरा रहा है। अगर हमें पूरी समस्या से लड़ना है, तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सहित महानगरों के स्तर पर और साथ ही पूरे देश के स्तर पर अपनी कई आदतों को बदलना होगा, विकास के तथाकथित मॉडल पर गंभीर चिन्तन करना होगा।
पर्यावरण सुरक्षा के मद्देनज़र शहर एक बड़ी चुनौती बन रहे हैं, क्योंकि शहर के विकास के लिए हरित क्षेत्र की बलि चढ़ाई जा रही है। जलवायु संबंधी परिवर्तनों ने कई शहरों के अस्तित्व को चुनौती दी है, विशेषतः समुद्र किनारे बसे शहर अब मानव निर्मित आपदाओं से अछूते नहीं रह गए हैं। इसके अलावा बड़े शहरों और महानगरों में बड़ी संख्या में झुग्गी बस्तियाँ बन गई हैं। इनमें रहने वाले लोग शहरी जनसंख्या से संबंधित उच्च एवं मध्य वर्ग की अनेक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, परंतु वे न केवल गरीबी के शिकार हैं अपितु बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं। प्रत्येक शहर में बेतरतीब यातायात एक गंभीर समस्या बन गया है, क्योंकि सार्वजनिक परिवहन सेवाओं को लगभग समाप्त कर दिया गया है।
शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, जल चाहिए, मकान चाहिए और दफ्तर चाहिए। इन सबके लिए या तो खेत खत्म हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्रोत सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है, जिसका हर्जाना संभव नहीं है और यही वायु प्रदूषण का बड़ा कारण है। शहरीकरण यानी रफ्तार और रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन है कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु।
शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना, जिसका परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियाँ अब जहरीली हो चुकी है। महानगरों की बढ़ती आबादी को सिर छुपाने को मकान चाहिए, जिसके लिए हरीतिमा क्षेत्रों को हम कांक्रीट के जंगल में तब्दील करते जा रहे हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यों के लिए, न कि उसमें गंदगी बहाने के लिए। असलियत कुछ देर से खुलती है लेकिन जब खुलती है तब तक लोगों का साँस लेना दूभर हो चुका होता है, संकट के बादल मंडराने लगते हैं।
दरअसल, स्वतन्त्र भारत के विकास के लिए हमने जिन नक्शे कदमों पर चलना शुरू किया, उसके तहत बड़े-बड़ेे शहर पूंजी केन्द्रित होते चले गए और रोजगार के स्रोत भी ये ही बने। शहरों में सतत एवं तीव्र विकास और धन का केन्द्रीकरण होने की वजह से इनका बेतरतीब एवं असंतुलित विकास स्वाभाविक रूप से इस प्रकार हुआ कि, यह राजनीतिक दलों के अस्तित्व और प्रभाव से जुड़ता चला गया, लेकिन पर्यावरण एवं प्रकृति से कटता गया। प्रबुद्ध नागरिक बढ़ते शहरीकरण को लेकर चिंतित रहते हैं और अनियोजित शहरी विकास को नियोजित विकास का रूप दिलाने के लिए न्यायालयों तक का दरवाजा खटखटाते हैं। इसके बावजूद अनियोजित शहरीकरण बढ़ रहा है। शहरीकरण के दुष्प्रभाव हमारे सामने आने लगे हैं। ऐसे में नीति निर्माताओं को इस समस्या पर गंभीरता से विचार करना और शहरों के विस्तार की बजाय गाँवों-कस्बों के विकास पर ध्यान देना होगा। गाँव आधारित आर्थिक विकास एवं आर्थिक व्यवस्था को प्रोत्साहन देना होगा। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतर व्यवस्था करके ग्रामीण आबादी को शहरों की ओर पलायन से रोका जा सकता है। इससे शहरों पर दबाव भी कम होगा और पर्यावरण, स्वास्थ्य, जीवन-शैली पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव में भी कुछ हद तक कमी आएगी।