पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
************************************
बहुत दिनों के बाद पकड़ में आई हो…
थोड़ी-सी खिलखिलाती ‘हँसी’
तो मैंने पूछा-
कहाँ रहती हो आजकल ?
ज्यादा मिलती नहीं…,
यहीं तो हूँ… जवाब मिला।
मैं बोली, बहुत भाव खाती हो…,
खिलखिलाती हँसी…
कुछ सीखो अपनी बहन से…,
हर दूसरे दिन चली आती है
हमसे मिलने… ‘परेशानी’…।
आती तो मैं भी हूँ…,
पर आप सब ध्यान नहीं देतीं…
अच्छा, कहाँ थीं तुम…!
जब पड़ोसी ने नई गाड़ी ली…,
और तब कहाँ थीं…!
जब रिश्तेदार ने बहुत
बड़ा-सा घर बनाया था…,
शिकायत होंठों पर थी, कि
उसने टोक दिया बीच में।
मैं रहती हूँ…,
कभी बच्चे की किलकारियों में
कभी रास्ते में मिल जाती हूँ…,
एक पुरानी सखी के रूप में कभी…
एक अच्छी-सी कहानी में…, फिल्म में…
कभी किसी खोई हुई चीज के मिल जाने पर…,
घर वालों की प्यार भरी परवाह में…
कभी, नई साड़ी में… तो कभी खुद सजने में…,
कभी… किचन में कुछ स्पेशल बनाने में…
कभी मानसून की पहली बारिश में…,
कभी… कोई गीत सुनने पर…
दरअसल…, थोड़ा-थोड़ा बाँट देती हूँ,
खुद को…
छोटे=छोटे पलों में,
उनके एहसासों में…
लगता है चश्मे का नम्बर…,
बढ गया है आपका…
सिर्फ बड़ी-बड़ी चीजों में…,
ही ढूंढते हो मुझे…।
अब तो पता मालूम हो गया
ना मेरा…।
ढूँढ लेना आसानी से,
दिनभर की छोटी-छोटी बातों में…॥