दीप्ति खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
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कर रहे हम अपनी,
नादानियों की भरपाई हैं।
सुख की गठरी में अपनी,
हमने खुद गाँठ लगाई है॥
गिले-शिकवे का दौर है,
मन में पलती रंजिशें
जज़्बातों को दरकिनार कर,
बस दुनियादारी निभाई है।
सुख की गठरी में अपनी,
हमने खुद गाँठ लगाई है…॥
क्या करें धन दौलत का,
जब अपने ही अपने साथ नहीं
ऊँच-नीच की दीवारें,
हमने खुद ही उठाई हैं।
सुख की गठरी में अपनी,
हमने खुद गाँठ लगाई है…॥
लालच बढ़ता जाता है,
मन में है संतोष नहीं
आगे बढ़ने की होड़ में,
नींदें अपनी गंवाई हैं।
सुख की गठरी में अपनी,
हमने खुद गाँठ लगाई है…॥
चाहतें थी सुकून की,
पर सौदा नफरत का कर लिया।
अपनी हर नादानियों से,
हर खुशी अपनी गंवाई है॥
सुख की गठरी में अपनी,
हमने खुद गाँठ लगाई है…॥