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गंभीर मामलों में भी धैर्य नहीं खोते थे पिताजी

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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‘पिता का प्रेम, पसीना और हम’ स्पर्धा विशेष…..

आज वाले कोलकात्ता के व्यस्तम इलाके में स्थित एक मकान के तीसरे माले में मेरा बचपन बीता। पिताजी के आँगन में पाँव रखने के साथ हम भाई- बहन सम्भल जाते थे। मेरे अपने बड़े ‘माँ जाये भाई’ व मेरे बीच २० साल का अन्तर रहा है। इसलिए,हम अपनी आवश्यकता या तो माँ को बताते या फिर बड़े भाई को।

मेरे पिताजी काफी जिम्मेदार तो थे,लेकिन मस्त-मौला स्वभाव के भी थे । पिताजी पहलवान किस्म के निडर व्यक्ति थे। वे अपने स्वभावनुसार रात को घर आते समय किसी भी प्रकार की छेने की मिठाई या रबड़ी ले कर ही आते थे। इसी तरह गर्मियों में रोज सबेरे बिना नागा बेल का शर्बत बढ़िया से बना परिवार में उपस्थित सभी सदस्य को दे फिर स्वयं लेते थे।

शुरूआती पढ़ाई मारजा (शिक्षक) के विद्यालय में हुई और वहाँ उस समय जो गणित पढ़ाई गई,वह आज तक हमारे लिए अतिउपयोगी साबित हो रही है। पिताजी बीच-बीच में पहाड़ा,जो गणित का एक अहम् हिस्सा होता है,पूछते रहते थे। उसका ही परिणाम है कि आज हम उसकी महत्ता का बखान कर पा रहे हैं।

पिताजी बहुत ही सुंदर लिखते थे,इसलिए वे ध्यान देकर हम सभी भाई-बहन को रोज सुलेख लिखवाते और सुधार भी करवाते थे। कुछ बड़ा हो गया,तब हर हफ्ते ताऊजी को सूचित करने वाले सारे समाचार पोस्टकार्ड पर संक्षेप में मेरे से लिखवा कर भेजते थे । इसके अलावा विद्यालय अवकाश वाले दिन यदि बैंक में काम होता तो मुझे भी साथ ले जाते और बैंक वाला कागज(पावती) मेरे से भरवाते। इसी क्रम में एक दिन उन्होनें मेरा ‘बच्चों वाला बचत खाता’ भी खुलवा दिया और कागज भी बैंक अधिकारी को कह मेरे से ही भरवाया। मेरी लिखावट से बैंक अधिकारी बहुत ही प्रभावित हुआ जिसके चलते उसने मेरे को एक के बदले दो गुल्लक दिए और उसमें सिक्के कैसे डालने हैं, समझा दिया। इस तरह मैं छोटी उम्र से ही बैंकिंग क्षेत्र से जुड़ गया,जो कालांतर में विस्तृत होता गया।

पिताजी प्रायः ट्राम गाड़ी(रेलगाड़ी की तरह ही होती है,फर्क इतना ही कि इसमें दो ही डब्बे होते थे और वह सड़कों के बीच में सीमित रफ्तार में पटरियों पर दौड़ती थी) में हमको घुमाने ले जाते थे। इसके अलावा एक तरफ जहाँ सब्जी मण्डी जाते,तब साथ में ले ही नहीं जाते,बल्कि कैसे खरीद की जाती है और कैसे सब्जी,फल देखे-परखे जाते हैं,समझाते।दूसरी ओर धार्मिक बाईस्कोप भी दिखाने ले जाते थे। इस तरह वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन तो कर लेते,लेकिन मारजा के समय से ही नवीं कक्षा तक के सफर में सारा दारोमदार बड़े भाई पर छोड़ रखा। यहाँ तक कि विद्यालय की पोशाक भी हमारे ताऊजी छुट्टी में मिलने आते,तभी वे सभी की हर साल बनवा जाते। हाँ,ताऊजी के सामने वे केवल हाँ भाईजी,हाँ भाईजी करते और उन्होंने कह दिया तो भले ही कपड़ा दिला देते अन्यथा सभी तरह की क्रिया-कलापों पर केवल ध्यान ही रखते थे।

उस समय ११वीं में बोर्ड की परीक्षा के बाद में ही महाविद्यालय में दाखिला होता था। इसलिए नवीं में ही विज्ञान,वाणिज्य या कला संकाय में से एक पर सोच-विचार कर निर्णय करना आवश्यक होता था,सो मेरे प्रधानाध्यापक जी ने आठवीं में गणित वाले अच्छे परिणाम स्वरूप मेरे बड़े भाई को समझा कर विज्ञान संकाय में मेरे दाखिला का आवेदन ले लिया। दस ग्यारह माह पश्चात एक दिन मेरी विज्ञान वाली पुस्तकों को देख पिताजी के ध्यान में आया कि मैंने तो विज्ञान संकाय ले रखा है,सो बिफर पड़े और कह दिया कि विज्ञान अपने काम की नहीं। वाणिज्य संकाय से पढ़ाई करनी है। यह सुन मैं तो सन्न रह गया। तब बड़े भाई ने हिम्मत जुटा कर पिताजी को बताया कि,इस विद्यालय में तो अब कैसे सम्भव होगा। तब पिताजी ने दूसरे विद्यालय का नाम लेकर कहा कि वहाँ मैं दाखिला करवा दूँगा। और आसानी से करवा भी दिया,क्योंकि उसकी भी गणना सबसे अच्छे विद्यालयों में होती थी।

११वीं बोर्ड की परीक्षा के पूरी होते ही मुझे तुरन्त ही अच्छी नौकरी मिल गई। नौकरी के पहले वाले दिन मैं संस्कार अनुरूप अपने इष्ट को धोक लगा,माताजी व पिताजी को धोक लगाने गया। उस समय पिताजी ने तीन बातों को याद रखने को कहा – हर प्रकार की ईमानदारी पर कायम तो रहना ही है और हमेशा शेर की तरह जिन्दगी जीनी है यानि निडरता से रहना है। इसके अलावा नौकरी के लालच में किसी भी प्रकार का ऐसा काम मत करना जिससे उसूलों पर जरा भी आँच आए। और ये सारी शिक्षाएं कालान्तर में नौकरी कार्यकाल के दौरान मेरे लिए अनेक समय काफी मददगार साबित हुईं।

स्नातक वाली पढ़ाई के दौरान ही पिताजी ने ताऊजी से मेरी स्नातक वाली पढ़ाई पश्चात ‘अधिकार-पत्र प्राप्त लेखाकार’ वाली पढ़ाई वाबत स्वीकृति ले ली,लेकिन इसी बीच ताऊजी की तबीयत बिगड़ गई। जब ताऊजी का स्वास्थ्य बहुत ज्यादा बिगड़ गया,तब पिताजी ने मेरे स्नातक के अन्तिम साल होने के कारण कोलकाता में मेरी सुचारु व्यवस्था कर बाकी सभी परिवार सदस्यों के साथ ताऊजी की देखभाल के उद्देश्य से उनके पास चले गए। इसी बीच कुछ ही महीनों में ताऊजी स्वर्गारोहण की ओर बढ़ गए,जिसका सदमा पिताजी सहन नहीं कर पाए। पिताजी मानसिक तौर से विक्षिप्त हो गए और उससे ताजिन्दगी उबरे ही नहीं।

आज जब मैं उन्हें याद करता हूँ तो पाता हूँ कि वे हर परिस्थिति में शांति से सोच-समझ कर ही कोई कदम उठाते थे,यानि गंभीर से गंभीर मामलों में भी धैर्य को नहीं खोते थे। इस तरह वे मुझे सिखा गए कि चाहे कुछ भी हो जाए,अपने-आप पर से नियंत्रण कभी नहीं खोना चाहिए। यही सीख आज मुझे हर कार्य को हमेशा संयमित व व्यवहार कुशलता से सफलता पूर्वक सम्पन्न करने में बहुत मददगार साबित हो रही है।

पिताजी बड़े दिल वाले थे यानि बड़ी से बड़ी गलती पर भी कुछ देर गुस्सा दिखाने के बाद माफ कर देते। वे अपनी तकलीफ तो बताते ही नहीं थे,बल्कि हमारी हर जरूरत और तकलीफ को बहुत ही गंभीरता से लेते थे। स्वयं अनुशासित रह हम भाई-बहनों को भी अनुशासन में रहना सिखा गए,जिसके सुखद परिणाम का हम सभी आज आनन्द उठा रहे हैं।

इस तरह की अनेक विशेषताओं के कारण ही पिताजी मुझे और भी ज्यादा केवल याद ही नहीं आते हैं,बल्कि उनकी दी हुई सीख मुझे हर उस कार्य को करने से रोक देती है,जिसके करने पर परिवार की प्रतिष्ठा पर किसी भी प्रकार की कोई आँच आ सकती हो।

आज परिवार-समाज में जो भी आदर-सत्कार प्राप्त कर पाया हूँ,वह सब उन सीखों को अपनाने के कारण ही संभव हुआ है,इसमें लेश मात्र भी सन्देह नहीं है। इस कारण ही आज २ पंक्तियाँ बहुत ही याद आ रही हैं

‘पिता नमन शत-शत करें,संतानें नत माथ।
गये न जाकर भी कहीं,श्वास-श्वास हो साथ॥’

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