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चंचल हिरणी

वाणी वर्मा कर्ण
मोरंग(बिराट नगर)
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कुलांचे भरती हिरणी,
चली वन की सैर को
मतवाली मदमाती,
नवयौवना गुनगुनाती
कस्तूरी चाहती।
बेखबर आस-पास से,
कोई शिकारी था वहां
घात लगाए बैठा,
अपनी चतुर निगाहों से,
सब-कुछ भाँपता।
हिरणी की कुलांचें,
रास न आई उसे
उसकी उन्मुक्त चाल,
भायी न उसे।
तीर छोड़ा उसने,
प्रेम का विश्वास का
तीर लगा सीधे हृदय में,
हिरणी छटपटा उठी
हाय निष्कपट चंचला,
बिंध गई तीर से।
शिकारी की धूर्तता रंग लाई,
था उसने शब्दजाल बिछाया
भोली न समझ पाई,
सँसार की निष्ठुरता
फँस गई माया-जाल में,
पर प्रयास और फिर प्रयास
अपने प्रत्येक दर्द को समेटे,
उठ खड़ी हुई वो।l
फिर कोई शब्द जाल न,
न ही कोई माया-जाल
बांध सका हिरणी को,
दौड़ पड़ी वो
दूर कहीं दूर,
वन की ओर।
अपने सफल प्रयास से,
आत्मविश्वास और साहस
साथ रहा उसके,
फिर न कोई शिकारी
बांध पाया उस मतवाली को।
विचरती रही वो,
सावधान गम्भीर
जो पाया था उसने,
छलिए के छल से।
पर खो गई थी उसकी चंचलता,
और उन्मुक्तता॥