दिल्ली
**************************************
गलवान संघर्ष के बाद भारत-चीन दोनों देशों के रिश्तों में एक बर्फ-सी जम गई थी, वह बर्फ अब पिघलती-सी प्रतीत हो रही है। दोनों देश पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर गश्त लगाने पर एक समझौते पर पहुंचे हैं। दोनों देशों के बीच लम्बे समय से चले आ रहे तनाव के बादल अब छंट सकते हैं। सीमा विवाद से जुड़े इस फैसले के गहरे कूटनीतिक व सामरिक निहितार्थ हैं, लेकिन इस फैसले का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरणों पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा, इससे दुनिया की महाशक्तियों की निरंकुशता को नियंत्रित किया जा सकेगा और ब्रिक्स समूह को ताकतवर बनाने के प्रयासों में सफलता मिलेगी। यह घटनाक्रम उस विश्वास को भी मजबूती देगा, जिसमें कहा जा रहा है कि मोदी और शी जिनपिंग यूक्रेन-रूस संघर्ष में मध्यस्थ की भूमिका निभा सकते हैं। इन आशा एवं सकारात्मक दृष्टिकोणों के बावजूद एक बड़ा प्रश्न चीन के पलटूराम नजरिए को लेकर निराश भी करता है। भारत को गहरे तक इस बात का अहसास है कि बीजिंग को सीमा समझौतों की अवहेलना करने की पुरानी आदत है। पूर्व के अनुभवों से ऐसी आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है। हालिया फैसले का भी ऐसा ही कोई हश्र न हो जाए, इसके लिए भारत को फूंक-फूंक कर कदम रखने की जरूरत है।
भारत-चीन दोस्ती महत्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि उपयोगी भी है। यह दोनों देशों के हित में होने के साथ दुनिया में शांति, स्थिरता, सौहार्द एवं आर्थिक विकास की भी जरूरत है। इसी लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दोस्ती की तरफ कदम बढ़ाते हुए हाथ मिलाए हैं। गलवान संघर्ष के ४ साल बाद आखिरकार दोनों देश निकट आए हैं, परस्पर वार्ता का गतिरोध दूर हुआ है, दुनिया को कुछ सकारात्मक एवं आशाभरा दिखाने की संभावनाएं बढ़ी हैं। इस गतिरोध के चलते दोनों देशों के बीच व्यापारिक गतिविधियां रूक-सी गई थी, एक बेहद जटिल भौगोलिक परिस्थितियों में दोनों देशों की सेनाओं को २४ घंटे तैयार रहने की स्थिति में खड़ा कर दिया गया था, लेकिन अब ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में दोनों देशों के निकट आने के घटनाक्रम से एक बड़ा संदेश भी दुनिया में जाएगा।
द्विपक्षीय वार्ता के बाद दोनों देशों के संबंध सामान्य होने की संभावना बढ़ अवश्य गई है, लेकिन इसमें समय लगेगा, क्योंकि बीते ४ वर्षों में चीन ने अपनी हरकतों से भारत का भरोसा खोने का काम किया है। भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच करीब ५ वर्षों के बाद विस्तार से वार्ता इसी लिए हो सकी, क्योंकि चीन देपसांग एवं डेमचोक से अपनी सेनाएं पीछे हटाने और सीमा पर निगरानी की पहली वाली स्थिति बहाल करने पर सहमत हुआ। यह एक अच्छा एवं शुभ संकेत है। प्रधानमंत्री मोदी ने सीमा पर शांति की अपेक्षा करते हुए चीन से कहा है कि आपसी विश्वास एवं सहयोग को बढ़ावा देने के साथ एक-दूसरे की संवेदनशीलता का सम्मान किया जाना चाहिए। यह कहना आवश्यक एवं प्रासंगिक था, क्योंकि चीन यह तो चाहता है कि भारत उसके हितों को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरते, लेकिन खुद उसकी ओर से भारत के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता को लगातार नजरअंदाज करता रहा था। इसका प्रमाण यह है कि वह कभी कश्मीर तो कभी अरुणाचल प्रदेश को लेकर मनगढ़ंत दावे करता रहा है। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि चीन किस तरह पाकिस्तान को भारत के खिलाफ मोहरे की तरह इस्तेमाल करता रहा है। चीन पाकिस्तान के उन आतंकियों का संयुक्त राष्ट्र में बचाव करता रहा है, जो भारत के लिए खतरा हैं।
चीन वायदों एवं समझौतों से पीछे हटता रहा है। चीनी राष्ट्रपति ने दोनों देशों के बीच १९९३, ९६, ०५ और १३ में परस्पर भरोसा पैदा करने वाले समझौतों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। इसी का अंजाम रही जून २०२० में गलवान घाटी जैसी घटना। इसके बावजूद भारत के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व ने बहुत संयम बरता, भड़काने वाली परिस्थितियों में भी उन्होंने धैर्य से काम लिया और बातचीत के जरिए ही मामले का हल निकाला, लेकिन, चिंता कम नहीं हुई है। भारतीय सामरिक पर्यवेक्षकों के बीच चीन के इरादों को लेकर शक बना रहेगा, क्योंकि हमारे इस पड़ोसी का भरोसा तोड़ने का पुराना इतिहास रहा है। फिर भी ‘देर आये दुरस्त आए’ की कहावत के अनुसार चीन को भारत से दोस्ती का महत्व समझ आ गया है तो यह दोनों देशों के साथ समूची दुनिया के हित में है।
भारतीय प्रधानमंत्री को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि चीन कहीं दो कदम आगे बढ़कर चार कदम पीछे न हट जाए, ऐसा पहले भी हो चुका है। भारत को इसकी पड़ताल करनी चाहिए कि कहीं वह फिर से वैसी हरकत तो नहीं करेगा, जैसी डोकलाम, गलवन, देपसांग आदि में की है। यह ध्यान रहे कि अब चीन को झुकना उसकी विवशता बन गई है, क्योंकि उसे यह आभास हुआ कि भारत का असहयोग उसके आर्थिक हितों पर प्रतिकूल असर डाल सकता है। ऐसा हुआ भी है कि भारत ने चीन को अपने देश में बाजार नहीं बनाने दिया, जिसका बड़ा खामियाजा उसे भुगतना पड़ा है। चीन की अर्थ-व्यवस्था में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है। निःसंदेह संबंध सामान्य होने से चीन के आर्थिक हित सधेंगे, लेकिन भारत को अपने आर्थिक हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।
वैसे यह उम्मीद करना जल्दबाजी ही होगी कि भारत-चीन सीमा पर जमीनी हालात जल्द ही सामान्य हो जाएंगे।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक परिपक्व राजनेता के रूप में पिछले ५ बरसों से राष्ट्रपति चिनफिंग से इसलिए नहीं मिले कि चीन जब तक अपनी सेना पीछे नहीं करेगा, तब तक दोनों की मुलाकात नहीं हो सकती।
भारत का जोर इस बात पर भी है कि दोनों देशों को एलएसी पर पूरी तरह परस्पर भरोसे का माहौल कायम करना होगा। भारतीय जनमानस के मन में सबसे बड़ा सवाल यही है कि दोनों देशों ने सीमा पर जो ५० हजार सैनिक तैनात कर रखे हैं, उन्हें कब वापस लाया जाएगा ? ताजा घटनाक्रम की सफलता एवं सार्थकता तभी संभव है, जब एक दूसरे के प्रति आदर, विश्वास, भरोसा और संवेदनशीलता होगी। एक अच्छी शुरुआत जरूर हुई है, लेकिन आगे का रास्ता तभी खुलेगा, जब कुछ हद तक चीन अपना रवैया बदलेगा।