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चुनाव:राजनेता पराए दुःख को अपना क्यों नहीं मानते ?

ललित गर्ग

दिल्ली
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लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, राजनेताओं एवं उम्मीदवारों के दागदार चरित्र की परतें खुलती जा रही है। एक समय था, जब लोग देश के नेताओं के सार्वजनिक जीवन में आचरण का अनुसरण करते थे। नेताओं को भी समाज में अपनी छवि व प्रतिष्ठा की फिक्र रहती थी, लेकिन हाल के वर्षों में राजनीति में कई क्षत्रप परिवारों के ऐसे नेता भी सामने आए हैं, जिन्होंने सत्तामद में चूर होकर तमाम नैतिकताओं व मर्यादाओं को ताक पर रखा। पिछले दिनों कर्नाटक में जनता दल (सेक्यूलर) के सांसद प्रज्वल रेवन्ना पर सैकड़ों महिलाओं के साथ दुराचार के जो गंभीर आरोप लगे, उसने राजनीति में पतन की पराकाष्ठा को दर्शाया है। यौन उत्पीड़न, दुराचार, भ्रष्टाचार एवं देशद्रोह पर सवार नेताओं तथा दागदार उम्मीदवारों से जुड़ा यह चुनाव लोकतंत्र पर एक गंभीर प्रश्न है। हमारी राजनीति एक त्रासदी बनती जा रही है। राजनेता सत्ता के लिए सब-कुछ करने लगा और इसी होड़ में राजनीति के आदर्श ही भूल गया है। यही कारण है कि, देश की फिजाओं में विषमताओं और विसंगतियों का जहर घुला हुआ है एवं कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं देती। डर लगता है राजनीतिक भ्रष्टाचारियों से, अपराध को मंडित करने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से, देश की एकता-अखण्डता को दांव पर लगाने वालों से एवं यौन उत्पीड़न व दुराचार से नारी अस्मिता को नोचने वालों से।
देश दु:ख-दर्द व संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है, समस्याएं नए-नए मुखौटे ओढ़ कर डराती है, भयभीत करती है। समाज में बहुत कुछ बदला है। मूल्य, विचार, जीवन-शैली, वास्तुशिल्प सबमें परिवर्तन है। आज़ चुनाव प्रक्रिया बहुत खर्चीली होती जा रही है। ईमानदार होना आज अवगुण तो अपराध के खिलाफ कदम उठाना पाप हो गया है। किसी अनियमितता का पर्दाफाश करना पूर्वाग्रह माना जाता है। सत्य बोलना अहम् पालने की श्रेणी में आता है। साफगोई अव्यावहारिक है। चुनाव के परिप्रेक्ष्य में इन और ऐसे बुनियादी सवालों पर चर्चा होना जरूरी है। आखिर कब तक राजनीतिक स्वार्थों के नाम पर गढ़ी जा रही ये नयी परिभाषाएं समाज और राष्ट्र को वीभत्स दिशाओं में धकेलती रहेंगी ? विकासवाद की तेज आँधी के नाम पर हमारा देश, हमारा समाज कब तक भुलावे में रहेगा ? चुनाव के इस महायज्ञ में सुधार, नैतिकता, मूल्यों, सिद्धान्तों की बात कहीं सुनाई नहीं दे रही है ? दूर-दूर तक कहीं रोशनी नहीं दिख रही है, न आत्मबल है, न नैतिक बल।
महान एवं सशक्त भारत के निर्माण के लिए आयोज्य यह चुनावरूपी महायज्ञ आज ‘महाभारत’ बनता जा रहा है, मूल्यों और मानकों की स्थापना का यह उपक्रम किस तरह लोकतंत्र को खोखला करने का माध्यम बनता जा रहा है। विशेषतः चारित्रिक अवमूल्यन, आर्थिक विसंगतियों एवं विषमताओं को प्रश्रय देने का चुनावों में नंगा नाच होने लगा है और हर दल इसमें अपनी शक्ति का बढ़-चढ़कर प्रदर्शन कर रहे हैं। आज सवाल बहुत बड़ा और वह है-भारत की राजनीति को प्रत्यक्ष विदेशी प्रभाव से बचाना। आम आदमी पार्टी पर जिन कथित भारत-विरोधी विदेशी ताकतों से भारी राशि लेने के आरोप लगे हैं, वह हमारी समूची चुनाव प्रणाली के लिए चुनौती है।
क्या कभी सत्तापक्ष या विपक्ष से जुडे़ लोगों ने या नए उभरने वाले राजनीतिक दावेदारों और आदर्श की बातें करने वाले लोगों ने अपनी करनी से ऐसा कोई अहसास दिया है कि, उन्हें सीमित निहित स्वार्थों से ऊपर उठा हुआ राजनेता समझा जाए ? यहाँ नेताओं के नाम एवं राजनीतिक दल महत्वपूर्ण नहीं हैं, महत्वपूर्ण है यह तथ्य कि, इस तरह का कूपमण्डूकी नेतृत्व कुल मिलाकर देश की राजनीति को छिछला ही बना सकता है। सकारात्मक राजनीति के लिए जिस तरह की नैतिक निष्ठा की आवश्यकता और परिपक्वता की अपेक्षा होती है, उसका समूचे विपक्षी दलों में अभाव एक पीड़ादायक स्थिति का ही निर्माण कर रहा है।
चुनावों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरूआत मानी जाती है, पर आज चुनाव लोकतंत्र का मखौल बन चुके हैं। चुनावों में वे तरीके अपनाएं जाते हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूलl हैं। इन स्थितियों से गुरजते हुए विश्व में अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चौराहे पर है। इसे चौराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है, उससे कई गुना अधिक दलों व नेताओं का है, जिन्होंने स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं। महाभारत की लड़ाई में सिर्फ कौरव-पांडव ही प्रभावित नहीं हुए थे। उस युद्ध की चिंगारियां दूर-दूर तक पहुंची थीं। साफ दिख रहा है कि,
इन स्थितियों में अब ऐसी कोशिश जरूरी है जिसमें ‘महान भारत’ के नाम पर ‘महाभारत’ की नई कथा लिखने वालों के मंतव्यों और मंसूबों को पहचाना जाए। आज़ भारत को अर्जुन की एकाग्रता वाले नेता चाहिए, क्योंकि जरूरी होने पर गलत आचरण के लिए सर्वोच्च नेतृत्व पर वार करना भी गलत नहीं है।
आजादी के अमृतकाल तक पहुँचने में हमारे राजनीतिक दलों ने नीतियों-आदर्शों के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत नहीं किए हैं, जो जनतांत्रिक व्यवस्था के मजबूत और स्वस्थ होने का संकेत देते हों, फिर भी यह अपेक्षा तो हमेशा रही है कि, नीतियाँ और नैतिकता कहीं-न-कहीं हमारी राजनीति की दिशा तय करने में कोई भूमिका निभाएंगी। भले ही यह खुशफहमी थी, पर थी। अब तो ऐसी खुशफहमी पालने का मौका भी नहीं दिख रहा, लेकिन यह सवाल पूछने का मौका आज है कि, नीतियाँ हमारी राजनीति का आधार कब बनेंगी ? यह भी पूछा जाना जरूरी है कि, अवसरवादिता को राजनीति में अपराध कब माना जाएगा ? यह अपने आप में एक विडम्बना ही है कि सिद्धांतों और नीतियों पर आधारित राजनीति की बात करना आज एक अजूबा लगता है। यह सही है कि, व्यक्ति के विचार कभी बदल भी सकते हैं, पर रोज कपड़ों की तरह विचार बदलने को किस आधार पर सही कहा जा सकता है ? सच तो यह है कि, आज राजनीति में सही और गलत की परिभाषा ही बदल गई है-वह सब सही हो जाता है, जिससे राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति होती हो और वह सब गलत हो जाता है जो आम आदमी के हितों से जुड़ा होता है। यह कैसा लोकतंत्र बन रहा है, जिसमें ‘लोक’ ही लुप्त होता जा रहा है ? क्यों नहीं आज के राजनेता पराए दर्द, पराये दुःख को अपना मानते ? क्यों नहीं जन-जन की वेदना और संवेदनाओं से अपने तार जोड़ते ?