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चेतना को विकसित करने की प्रक्रिया ‘योग’

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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२१ जून विश्व योग दिवस विशेष….

जिस भी जीव को शरीर मिला है,उसको स्वस्थ्य बनाने के लिए कुछ न कुछ शारीरिक मानसिक क्रियाएं करना पड़ती हैं और क्रियाहीन जीवन मृत हो जाता है। सब जानवर,पशु-पक्षी अपनी विशेष क्रियाएं करते हैं,यह उनमें नैसर्गिक गुण होता है। मानव में मन विशेष होने और बहुत चंचल होने के कारण हम प्रमादवश मन के वशीभूत होकर मानसिक और शारीरिक क्रियायों से वंचित हो जाते हैं। फिर हम रोगग्रस्त होने लगते हैं। रोग के दो स्थान होते हैं शरीर और मन। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि मन अस्वस्थ तो उसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है और शरीर दुखी तो उसका प्रभाव मन पर पड़ता है। इसीलिए हमें मन और शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए चिकित्सा की जरुरत पड़ती है,पर योग एक ऐसी विधा है जो तन,मन,जन, व्यक्ति,परिवार और समाज को स्वस्थ्य रखता है। व्यक्ति ही समाज और देश की इकाई होता है।
योग शब्द संस्कृत धातु ‘युज’ से निकला है,जिसका मतलब है व्यक्तिगत चेतना या आत्मा का सार्वभौमिक चेतना या रूह से मिलन। योग,भारतीय ज्ञान की ५ हजार वर्ष पुरानी शैली है। हालांकि,कई लोग योग को केवल शारीरिक व्यायाम ही मानते हैं,जहाँ लोग शरीर को मोड़ते, मरोड़ते, खींचते हैं और साँस लेने के जटिल तरीके अपनाते हैं। यह वास्तव में केवल मनुष्य के मन और आत्मा की अनंत क्षमता का खुलासा करने वाले इस गहन विज्ञान के सबसे सतही पहलू हैं। योग विज्ञान में जीवन शैली का पूर्ण सार आत्मसात किया गया है।
योग १० हजार साल से भी अधिक समय से प्रचलन में है। मननशील परंपरा का सबसे तरौताजा उल्लेख नारदीय सूक्त में व सबसे पुराने जीवन्त साहित्य ऋग्वेद में पाया जाता है। यह हमें फिर से सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के दर्शन कराता है। ठीक उसी सभ्यता से पशुपति मुहर (सिक्का) जिस पर योग मुद्रा में विराजमान एक आकृति है,जो वह उस प्राचीन काल में योग की व्यापकता को दर्शाती है। हालांकि,प्राचीनतम उपनिषद,बृहदअरण्यक में भी, योग का हिस्सा बन चुके,विभिन्न शारीरिक अभ्यासों का उल्लेख मिलता है। छांदोग्य उपनिषद में प्रत्याहार का तो बृहदअरण्यक के एक स्तवन (वेद मंत्र) में प्राणायाम के अभ्यास का उल्लेख मिलता है। योग को यहाँ भीतर (अन्तर्मन) की यात्रा या चेतना को विकसित करने की एक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है।
अथर्ववेद में उल्लेखित संन्यासियों के एक समूह,वार्ता (सभा) द्वारा शारीरिक आसन जो कि योगासन के रूप में विकसित हो सकता है,पर बल दिया गया है। यहाँ तक कि संहिताओं में उल्लेखित है कि प्राचीन काल में मुनियों,महात्माओं,वार्ताओं और विभिन्न साधु-संतों द्वारा कठोर शारीरिक आचरण,ध्यान व तपस्या का अभ्यास किया जाता था।
योग धीरे-धीरे एक अवधारणा के रूप में उभरा है। भगवद गीता के साथ महाभारत के शांतिपर्व में भी योग का विस्तृत उल्लेख मिलता है।
२० से भी अधिक उपनिषद और योग वशिष्ठ उपलब्ध हैं,जिनमें महाभारत और भगवद गीता से भी पहले से ही योग के बारे में सर्वोच्च चेतना के साथ मन का मिलन होना कहा गया है।
हिंदू दर्शन के प्राचीन मूलभूत सूत्र के रूप में योग की चर्चा की गई है और शायद सबसे अलंकृत पतंजलि योगसूत्र में इसका उल्लेख किया गया है। अपने दूसरे सूत्र में पतंजलि, योग को कुछ इस रूप में परिभाषित करते हैं-
‘योग: चित्त-वृत्ति निरोध:’ – योग सूत्र १.२
पतंजलि का लेखन भी अष्टांग योग के लिए आधार बन गया। जैन धर्म की पांच प्रतिज्ञा और बौद्ध धर्म के योगाचार की जड़ें पतंजलि योगसूत्र में निहित हैं
योग में विभिन्न किस्म के लागू होने वाले अभ्यासों और तरीकों को शामिल किया गया है। ‘ज्ञान योग’ या दर्शनशास्त्र, ‘भक्ति योग’ या भक्ति-आनंद का पथ एवं ‘कर्म योग’ या सुखमय कर्म पथ।
मन के स्वास्थ्य और मानव अस्तित्व से जुड़े अन्य छिपे हुए तत्वों के लिए यह जरुरी है। हम मानते हैं कि जब किसी के भीतर सद्भाव होता है,तो जीवन के माध्यम से यात्रा शांत,सुखद और अधिक परिपूर्ण हो जाती है।
योग की सुंदरताओं में से एक खूबी यह भी है कि बूढ़े या युवा,स्वस्थ या कमजोर सभी के लिए योग का शारीरिक अभ्यास लाभप्रद है और यह सभी को उन्नति की ओर ले जाता है। उम्र के साथ साथ आपकी आसन की समझ ओर अधिक परिष्कृत होती जाती है। हम बाहरी सीध और योगासन की तकनीकी (बनावट) पर काम करने बाद अन्दरूनी सूक्ष्मता पर अधिक कार्य करने लगते हैं।
योग हमारे लिए कभी भी अनजाना नहीं रहा है। हम यह तब से कर रहे हैं,जब हम बच्चे थे। चाहे यह ‘बिल्ली खिंचाव’ आसन हो जो रीढ़ को मजबूत करता है,या पवन-मुक्त आसन जो पाचन को बढ़ाता है। बहुत से लोगों के लिए योग के बहुत से मायने हो सकते हैं। योग के जरिए आपके जीवन की दिशा तय करने में मदद करने के लिए दृढ़ संकल्प है।
साँस का नियंत्रण और विस्तार करना ही प्राणायाम है। साँस लेने की उचित तकनीकों का अभ्यास रक्त और मस्तिष्क को अधिक ऑक्सीजन देने के लिए अंततः प्राण या महत्वपूर्ण जीवन ऊर्जा को नियंत्रित करने में मदद करता है। प्राणायाम भी विभिन्न योग आसन के साथ चलता जाता है। योग आसन और प्राणायाम का संयोग शरीर और मन के लिए,शुद्धि और आत्म अनुशासन का उच्चतम रूप माना गया है।
वैसे जैन दर्शन में योग परंपरा से संबधित अनेक ग्रन्थ हैं,पर कुछ ग्रंथों का सन्दर्भ दिया जाना उचित होगा-ज्ञानार्णव,ध्यान शतक,ध्यान शतक और ध्यानस्तव,ध्यान शास्त्र,योगसार संग्रह,समाधि शतक आदि।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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