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जनभाषा में न्याय जरूरी, इच्छाशक्ति से ही संभव

वैश्विक ई-परिचर्चा…

◾न्यायमूर्ति राजन कोचर (पूर्व न्यायाधीश-मुंबई उच्च न्यायालय)
यदि सरकार इच्छाशक्ति दिखाए तो न्यायपालिका में जनभाषा में न्याय दिया जा सकता है। खुशी की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमन तथा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनभाषा में न्याय की बात कही है, लेकिन सभी को यह समझने की आवश्यकता है कि ऐसा नहीं है कि आप चाहें और अगले दिन से जनभाषा में न्याय लागू कर दें। इसके लिए न्यायिक शिक्षा, न्यायाधीशों की नियुक्ति और संवर्ग व्यवस्था, अनुवाद व्यवस्था तथा भाषा शिक्षण प्रशिक्षण आदि की व्यवस्थाओं की सुदृढ़ जमीन तैयार करनी होगी। हमें अतिवाद से बचते हुए धैर्यपूर्वक योजनाबद्ध रूप से यह काम करना होगा। और यह सब इच्छाशक्ति से ही संभव है।

◾डॉ. बीना (निदेशक-केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा)
जनभाषा जनता के मानस की भाषा है, उसे जल्दी समझ आती है और सन्दर्भ यदि न्याय से जुड़ा हो तो ये और संवेदनशील मुद्दा हो जाता है। आमजन को न्यायालय के फैसले की प्रति हाथों में लिए दर-दर भटकते देखा है, क्योंकि वे उस भाषा को नहीं समझ पाते जिसमें उनके जीवन का फैसला लिखा होता है। बात जिससे सम्बंधित है, उसके ही पल्ले न पड़े ,यह तो अनौचित्य पूर्ण हुआ न। तो जनभाषा में न्याय जरूरी है।

◾श्री कामेश्वर (अधिवक्ता व राष्ट्रीय सहसंयोजक, भारतीय भाषा अभियान)
भाषा के आधार पर प्रांतों की रचना हुई है परंतु ४ प्रांतों ( क्रमशः बिहार, उत्तरप्रदेश मध्य प्रदेश और राजस्थान) के उच्च न्यायालय में उस राज्य की राजभाषा है। बाक़ी के प्रांतों के उच्च न्यायालय में जन भाषा में न्याय नहीं मिलता है। जनभाषा में अगर न्याय नहीं मिलता है तो यह न्याय नहीं अन्याय है। पक्षकारों को अपने मुक़दमे में क्या पत्रावली पेश हुई ? गवाही क्या हो रही है ? इन सारी बातों से वह अनभिज्ञ रहता है। अगर ये सारी कार्यवाही पक्षकारों की अपनी मातृभाषा या जन भाषा में होगी तो सही न्याय होगा। पक्षकार जब न्यायालय की भाषा नहीं समझ पाता है तो उसे सही न्याय नहीं मिलता है। या यूँ कहें कि, उसे कुछ भी समझ नहीं आता। अतएव न्याय प्रणाली जनभाषा में होनी चाहिए।

◾डॉ. अमरनाथ (कोलकाता-पश्चिम बंगाल)
अपनी भाषा में न्याय हमारा जनतांत्रिक और मौलिक अधिकार है। विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र में आजादी के ७५ वर्षों के पश्चात् भी सर्वोच्च न्यायालय और देश के २५ में से २१ उच्च न्यायालयों की किसी भी कार्यवाही में भारत की किसी भी भाषा का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित है और यह प्रतिबंध भारतीय संविधान की व्यवस्था के तहत है। सिर्फ राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के उच्च न्यायालयों को छोड़कर देश के शेष सभी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ अंग्रेजी में ही होती हैं। सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के प्रयोग की अनिवार्यता हटाने और एक या एकाधिक भारतीय भाषा को प्राधिकृत करने का अधिकार राष्ट्रपति या किसी अन्य अधिकारी के पास नहीं है। अतः सर्वोच्च न्यायालय में एक या एकाधिक भारतीय भाषा का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए और प्रत्येक उच्च न्यायालय में कम-से-कम एक-एक भारतीय भाषा का दर्जा अंग्रेज़ी के समकक्ष दिलवाने हेतु संविधान संशोधन ही उचित रास्ता है। किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे में वह न्यायालय में स्वयं बोल सके, चाहे वह वकील रखे या न रखे, परन्तु अनुच्छेद ३४८ की इस व्यवस्था के तहत देश के ४ उच्च न्यायालयों को छोड़ शेष सभी में यह अधिकार देश की उन ९९ प्रतिशत जनता से प्रकारान्तर से छीन लिया गया है जो अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं हैं। उन्हें मजबूर होकर अंग्रेजी जानने वाला वकील रखना पड़ता है। अगर ४ न्यायालयों में भारतीय भाषा में न्याय पाने का हक है तो देश के शेष २१ उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में निवास करने वाली जनता को यह अधिकार क्यों नहीं ? मेरी माँग है कि आज हमारा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, इस आजादी को सर्व सुलभ बनाने के लिए उनकी भाषा में न्याय पाने का अधिकार सबको उपलब्ध कराया जाए। हमारी आजादी की सार्थकता इसी में है।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)

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