बबिता कुमावत
सीकर (राजस्थान)
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मन की खामोशी में इक तूफ़ान पलता है,
शब्दों की झिलमिल में भावों का जंगल जलता है
विवेक का दीपक बुझता है जब,
अंतर का अंधकार स्वयं को निगलता है।
स्मृतियों की परतों में एक चेहरा अनलिखा,
मौन की चादर में लिपटा, समय से भी पुराना
वो क्षण-जिसने हृदय की नसों में राग भरा,
अब केवल प्रतिध्वनि है-सूनी, बेगाना।
आँसू, विचार, और अभिमान का सम्मिलन,
एक तिक्त मधुर रस-मन का नर्तन
हर पीड़ा में कविता का जन्म हुआ,
हर क्षति में अर्थ का गर्भ निहित हुआ।
भावनाओं की रेखाएँ जब सीमाएँ तोड़तीं,
तर्क की दीवारें भी शून्य में झूलतीं
मनुष्य स्वयं अपनी व्याख्या बन जाता,
और जज़्बात-उसका शास्त्र रच डालता।
कभी प्रेम, कभी विरक्ति का व्याकुल संधान,
कभी मौन में छिपा शब्दों का विधान
हर धड़कन एक प्रश्न, हर साँस उत्तर,
यह दास्ताँ नहीं-एक अनंत समंदर।
जहाँ हृदय की नाव डोलती, दिशाहीन सही,
पर हर लहर में कोई अर्थ रोता, कोई हँसी।
और अंत में-
जज़्बातों की राख से एक स्वर उठता है-
“मैं अभी भी महसूस करती हूँ,
इसलिए अब भी जीवित हूँ॥