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जागरण

देवेंद्र कुमार सोनी ‘देव’
दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़)
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श्रम आराधना विशेष…

बंद करो, बहुत सेंक ली रोटियाँ,
हमारे परिश्रम के तवे पर
मेहनती हाथों की
जलाकर लकड़ियाँ,
चूस लिया आंतों का रस
ज्यों चूसती शिकार,
जंगली मकड़ियाँ।

चढ़कर मेरे कांधो पे,
छूने का शौक है ऊँचाइयाँ
सूखते ही पसीना,
देते हैं संवेदना और रक्तिम बिवाइयाँ।

बनाए ताल सरोवर,
जीवट हाथों ने
जिसमें कोटि-कोटि मेघ बरसे,
फिर क्यों प्यासे होंठ
दो बूँद पानी को तरसे !

दब गई रेत-मिट्टी-गारे में,
अल्हड़ जवानियाँ
पढ़ लो फुर्सत में,
झुर्री भरे भाल की
अनपढ़ी कहानियाँ।

थकी-थकी-सी हैं,
मगर बुझी नहीं
पल में बन जाए ज्वाला,
सुप्त चिंगारियाँ।

कैसे ठहराओगे!
यह विकास और सपना,
अब पूरा है
देते हैं जो आकार,
उत्थान उनका
अभी अधूरा है।

भोर हुई अब,
जागे हैं उठे हैं चले हैं
चलेंगे आत्मविश्वास से,
अब ना रहेगी व्याकुल आंतें।
कभी भूख और प्यास,
कभी भूख और प्यास से॥