अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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देश में जातिवार जनगणना का मानस बनाने के लिए जिस सुविचारित ढंग से चालें चली जा रही हैं,उससे साफ है कि आगामी चुनावों का यह मुख्य मुद्दा होगा। इसकी डुगडुगी घोर जातिवाद में पगे बिहार से बजना स्वाभाविक ही था। एनडीए का हिस्सा रही जद यू और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में भाजपा सहित ११ दलों के प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भेंटकर उन्हें जातिवार जनगणना की जरूरत से अवगत कराया और प्रमं ने भी ‘गंभीरता’ से उनकी बात सुनी। हालांकि प्रतिनिधिमंडल में शामिल ज्यादातर पार्टियां एक-दूसरे की राजनीतिक विरोधी हैं,लेकिन जातिवार जनगणना पर उनमें आम सहमति है,क्योंकि जाति का राजनीतिक स्वीकार ही इन दलों के सियासी अस्तित्व की गारंटी भी है। संकेत यही है कि जातिवार जनगणना के बारे में मोदी सरकार जल्द फैसला लेने वाली है। और यह फैसला जातिवार जनगणना से भाजपा को होने वाले राजनीतिक नफे-नुकसान को ध्यान में रखकर लिया जाएगा। मंथन इसके ‘समय’ को लेकर है, ताकि जातिवार जनगणना की घोषणा का अधिकतम राजनीतिक लाभांश भाजपा अपने खाते में दर्ज करा सके। इस जातिवार जनगणना का मुख्य ध्यान अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल उन जातियों पर होगा,जिनकी संख्या को लेकर हमेशा एक भ्रम का वातावरण रहा है। यूँ कहने को नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने तर्क दिया है कि एक बार जनगणना हो जाएगी तो सभी जातियों की आबादी की स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। इसी आधार पर गरीबों को सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकेगा। सही आँकड़ों के अभाव में अभी कई समूहों को सरकार की नीतियों का लाभ नहीं मिल पा रहा है,लेकिन खुला रहस्य यह है कि जातिवार जनगणना का मकसद सियासी दलों द्वारा ओबीसी मत बैंक अपने लिए सुरक्षित करना है,क्योंकि इन्हीं जातियों के मतदाताओं की सत्ताधीशों के चुनाव में अहम भूमिका होगी। दलों के साथ जातियों की प्रतिबद्धता और अलगाव भी सुनिश्चित हो सकेगा। उन्हें गोलबंद करना ज्यादा आसान होगा।
इस देश में आखिरी बार जातिवार जनगणना १९३१ में अंग्रेजों के जमाने में हुई थी। यही व्यवस्था १९४१ की जनगणना में लागू रही,लेकिन सरकार ने जातियों के आँकड़े जारी नहीं किए। २०११ में भी समाजार्थिक तथा जातिय जनगणना की गई थी,लेकिन आँकड़े सरकार ने कभी जारी नहीं किए। लिहाजा,आज भी १९३१ के आँकड़ों के आधार पर जातिवार जनसंख्या के अनुमान लगाए जाते हैं,जिनमें ओबीसी के साथ-साथ दलित, आदिवासी और सवर्ण भी शामिल हैं। स्वतंत्र भारत में अनुसूचित जाति और जनजाति की गणना तो हुई,लेकिन बाकी जातियों की जनसंख्या को ‘सामान्य’ मान लिया गया। इसके पीछे कारण हिंदू समाज को घोषित रूप में बंटने से रोकना भी हो सकता है,लेकिन जमीनी सच्चाई है कि भारत में चुनावी रणनीतियां जातियों के समर्थन और विरोध को ध्यान में रखकर ही बनती आई हैं। अब इसमें धर्म का कोण भी पूरी ताकत से शामिल हो गया है। शायद ही कोई राज्य होगा,जिसमें जाति का गणित सत्ता की शतरंज पर अहमियत न रखता हो,क्योंकि जातियों की सत्ताकांक्षा चुनाव के माध्यम से प्रस्फुटित होती है। उनकी गोलबंदी और दंबगई सरकारों को अपेक्षित नीतियां और सुविधाएं देने पर विवश करती है। जातिय आधार पर समाज और देश का यह विभाजन वास्तव में ‘एक राष्ट्र’ और धार्मिक एकता की भावना के विपरीत ही है,लेकिन अब इसी को ‘मजबूत राष्ट्र’ के लिए ‘अनिवार्य मजबूरी’ के रूप में पेश किया जा रहा है। मंडल-कमंडल राजनीति ने देश में जाति के आधार पर मतदाताओं की नई गोलबंदी को जन्म दिया,उसे पल्लवित किया। अब भाजपा ने भी इसे सत्ता के खेल की अपरिहार्य शर्त के रूप में स्वीकार करते हुए, इसका दोहन अपने पक्ष में करने की पूरी तैयारी कर ली है।
सवाल उठ सकता है कि जातिय विभाजन और गोलबंदी का लाभ हाल के वर्षों में किस राजनीतिक दल को सबसे ज्यादा मिला है ? सामाजिक समरसता की माला जपते-जपते किस दल ने जाति के मनकों को बड़ी चतुराई से अपने पक्ष में फेरा है तो इसका जवाब भारतीय जनता पार्टी ही है। ९० के दशक में भाजपा ने ‘सवर्णों और बनियों की पार्टी’ होने का चोला उतार फेंका और देश और राज्यों की सत्ता पर काबिज होने के लिए सभी धार्मिक और जातिगत गोलबंदी के नुस्खे आजमाना शुरू किए। इसका नतीजा है कि आज लगभग एक दर्जन राज्यों और दिल्ली के तख्त पर उसका कब्जा है। हालांकि,ओबीसी मतदाता का देश और प्रदेश के चुनावों में रूझान हमेशा एक-सा नहीं होता। बावजूद इसके बड़े पैमाने पर पिछड़ी जातियां धीरे-धीरे कैसे भाजपा के भगवा शामियाने तले एकजुट होने लगीं,इसे लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के आँकड़ों से समझा जा सकता है। रिपोर्ट बताती है कि बीते २५ सालों में ओबीसी का भाजपा को समर्थन किस तेजी से बढ़ा है। हालांकि,पिछले २ लोकसभा चुनाव ने सिद्ध किया है कि भाजपा ने पिछड़े वर्ग के साथ-साथ दलित,आदिवासी और सवर्णों में भी अपना मत बैंक विस्तारित किया है। ओबीसी में भाजपा की बढ़ती घुसपैठ के चलते दूसरी जाति-केन्द्रित पार्टियों में गहरी चिंता है। ऐसे में वो जातियों की सही संख्या जानना चाहती हैं ताकि भाजपा की जातिय गोलबंदी को ‘रोका’ जा सके।
ओबीसी को ‘कर्मवीर जातियां’ भी कहा जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पिछड़ा वर्ग के चेहरे के रूप में प्रचारित करने से भी भाजपा को फायदा हुआ है। यह सचाई है कि आजादी के बरसों बाद तक राजनीति में सवर्णों के वर्चस्व को चुनौती देने वाला ओबीसी मानस मोदी के रूप में अपना वर्चस्व देखकर मानसिक रूप से भी संतुष्ट होता है। मोटे तौर पर माना जाता है कि देश में ओबीसी की जनसंख्या कुल का आधे से ज्यादा यानी करीब ५२ फीसदी है। इसके तहत लगभग ६ हजार जातियां आती हैं। उसी आधार पर सत्ता और संसाधनों में इनकी हिस्सेदारी भी अपेक्षित होगी।
जातिवार जनगणना का अंतिम लाभांश यदि भाजपा के खाते में जाने की पूरी संभावना हो तो उसे जातिवार जनगणना कराने में कोई ऐतराज न होगा। इसके लिए नए तर्क और जुमले भी गढ़ लिए जाएंगे और इसकी कोई ठोस काट जाति आधारित क्षेत्रीय दलों के पास न होगी। जहां तक सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का सवाल है तो उसकी दुविधा और बढ़ेगी कि जातिय आधार पर वह किस मत बैंक को साधे और किसे छोड़े।
दरअसल देश के जातिय आधार पर विभाजन का वैधानिक स्वीकार सर्व समावेशिता के सिद्धांत का विलोम ही है,लेकिन यदि यह देश आरक्षण में ही देशहित का रक्षण बूझ रहा हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता। तय मानिए कि जातिवार जनसंख्या के आँकड़े सामने आने के बाद धार्मिक से ज्यादा जातिय तुष्टिकरण की राजनीति देखने को मिलेगी। आश्चर्य नहीं कि आगामी सालों में बची-खुची अनारक्षित जातियां भी खुद को ओबीसी में शामिल कराने के लिए दबाव बनाएं,क्योंकि जब सभी ‘पिछड़े’ हो जाएंगे तो ‘अगड़े’ का झंझट ही खत्म हो जाएगा। वैसे,हम कुछ जातियों को आरक्षण से बाहर करने का आंदोलन भी देख सकते हैं,क्योंकि आरक्षित जातियों की बढ़ती संख्या के कारण संसाधनों के सूक्ष्म स्तर तक बंटवारे और बढ़ती अपेक्षाओं का नया घमासान मचेगा। बात गरीबी की होगी,दांव अमीरी के चलेंगे। यह भी संभव है कि मोदी सरकार २०११ की जाति जनगणना के आँकड़े जारी कर इसका इस्तेमाल खेल परिवर्तक (गेम चेंजर)की तरह करने की कोशिश करे। कुल मिलाकर हम धार्मिक के साथ-साथ नए जातिय ध्रुवीकरण के दौर में प्रवेश करने जा रहे हैं। ये नई दिशा देश की क्या दशा बनाएगी,इस बारे में अभी कल्पना ही की जा सकती है।