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जीवन की जड़ें पूर्वजों में, हम उनके ऋणी

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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श्राद्ध, श्रद्धा और हम (पितृ पक्ष विशेष)…

भारतीय समाज एवं संस्कृति में माता-पिता व गुरु को विशेष श्रद्धा व आदर दिया जाता है, उन्हें देवतुल्य या ईश्वर स्वरूप माना जाता है। माता-पिता अथवा पूर्वजों के प्रति श्रद्धा एवं आदर भावना जीवन पर्यन्त तक निभाना भी भारतीय समाज की संस्कृति का एक अंग है। जिसे ‘श्राद्ध’के नाम से जाना जाता है।
‘श्राद्ध’ का तात्पर्य भी यह है, कि जो कर्म श्रद्धा के साथ अपने दिवंगत पितरों की आत्म की तृप्ति के लिए किया जाए। यह एक ऐसा संस्कार है, जो अपने पूर्वजों को सम्मान, आत्मा को शांति पहुंचाने और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
श्राद्ध पक्ष में हम अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। यह समय हमें यह याद दिलाता है, कि हमारे जीवन की जड़ें हमारे पूर्वजों में है, जिन्होंने हमें संस्कार, प्रेरणा और मार्गदर्शन दिया। मृत्युपरांत पितरों के प्रति श्रद्धा व सम्मान अर्पण करने का यह उत्तम समय होता है। भाद्रपद की पूर्णिमा और अमावस्या से लेकर अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को पितृपक्ष कहा जाता है। यह वह समय है, जब पूर्वज पृथ्वी पर आते हैं और परिवार को अपना आशीर्वाद देते हैं। मान्यता है कि इस अवधि में श्राद्ध करने से पितरों को मोक्ष मिलता है। इस अवधि में पूर्वजों की आत्माओं की शांति के लिए तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान किए जाते हैं।इस अनुष्ठान से पितृदोष से मुक्ति मिलती है और वंशजों को पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। पितृपक्ष १६ दिन की अवधि का होता है इसलिए इसे ‘सोलह श्राद्ध’ महालय पक्ष, अपर पक्ष आदि नामों से जाना जाता है। श्राद्ध कर्म लोकमानस की स्वत: विकसित कल्पना नहीं है, बल्कि इसका ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व भी है। पितृपक्ष में पूर्वजों की पूजा व तर्पण की प्रथा वैदिक काल से ही प्रचलित है। पितरों की आराधना में लिखी ऋग्वेद की एक लंबी ऋचा में(१०.१४.१) यम तथा वरुण का भी उल्लेख मिलता है। पितरों का विभाजन वर, अवर और माध्यम वर्गों में किया गया है। (१०.१५.१) व यजुर्वेद संख्या (१९४२) ऋग्वेद के द्वितीय छंद में यह स्पष्ट उल्लेख है, कि सर्वप्रथम और अंतिम दिवंगत पितृ तथा अंतरिक्षवासी पितृ श्रद्धेय हैं। इसके अतिरिक्त सायण की टीका में भी पितरों की ३ कोटियाँ निर्धारित हैं-श्रोत संस्कार संपन्न कराने वाले पितर प्रथम श्रेणी के, स्मृति आदेशों का पालन करने वाले पितर द्वितीय श्रेणी में और
इनसे भिन्न कार्य करने वाले पितर अंतिम श्रेणी में। ऐसे ३ विभिन्न कार्यक्षेत्रों का विवरण मिलता है, जिनसे होकर मृतात्मा की यात्रा पूर्ण होती है।
पौराणिक कथाओं में सर्वप्रथम महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसा-अत्रि मुनि ने सर्वप्रथम महर्षि निमि को श्राद्ध का उपदेश दिया था। इसके बाद निमि ने श्राद्ध कर्म किया और यह परंपरा शुरू हो गई। गरुड़ पुराण के अनुसार-भीष्म पितामह ने भी पांडव को श्राद्ध और पितृपक्ष के बारे में बताया था।विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार भी श्राद्ध प्रथा भगवान विष्णु के वराह अवतार के समय स्थापित हुई थी और विष्णु को ही ३ पिंडों में अवस्थित माना जाता है।
श्राद्ध महिमा में कहा गया है कि ‘आयु: पूजां धनं विद्यां स्वर्ग मोक्ष सुखानी च। प्रयच्छती तथा राज्यं पितर:श्राद्ध तर्पिता। अर्थात् जो लोग अपने पितरों का श्राद्ध श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनके पिता संतुष्ट होकर उन्हें आयु, संतान, धन स्वर्ग, राज्य मोक्ष व अन्य सौभाग्य प्रदान करते हैं। यह भी कहा जाता है, कि पितरों के प्रसन्न होने पर सारे देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं ‘पितरं प्रीतिमापन्ने प्रियंते सर्वदेता:।’ अर्थात श्राद्ध एक धार्मिक कर्म है, जो अपने पूर्वजों को सम्मान, आत्मा को शांति और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार ‘श्राद्ध’ सामान्यतः ३ पीढ़ियों जैसे-पिता, पितामह और प्रपितामह तक किया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पिता को वसु, पितामह को रुद्र और प्रपितामह को आदित्य के समान माना जाता है। इस परंपरा में ३ पीढ़ियों के पितरों को पिंडदान और तर्पण के माध्यम से सम्मान और तृप्त किया जाता है। यह क्रिया मुख्य रूप से परिवार का बड़ा पुत्र करता है। पुत्र न होने पर पौत्र, प्रपौत्र व विधवा पत्नी भी कर सकती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भाद्रपक्ष में अमावस्या के दिन हम अपने पितरों को जलांजलि, पुष्पांजलि व कुछ पारंपरिक भोज्य पदार्थों, तर्पण के लिए जल में अक्षत, फूल, तिल आदि जल में मिलाकर मंत्रोच्चार के साथ पितरों को अर्पित किया जाता है और पितरों के निमित्त भोजन व दान पुण्य भी किया जाता है एवं प्रार्थना की जाती है कि हे, मेरे पितृ गण ! मेरे पास श्राद्ध के निमित्त न तो धन है और न धान्य। मेरे पास आपके लिए सिर्फ श्रद्धा और भक्ति है। तत्पश्चात उन्हें श्रद्धांजलि देकर उनका तर्पण करते हैं, और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
‘श्राद्ध’ और ‘श्रद्धा’ में अन्योनाश्रित संबंध है। श्राद्ध शब्द ‘श्रद्धा’ से ही बना है। स्कन्द पुराण के अनुसार ‘श्राद्ध’ नाम इसलिए पड़ा, कि उस कृत्य में ‘श्रद्धा’ मूल है। ऋग्वेद में भी श्रद्धा को ‘देवत्व’ नाम दिया गया है। जिस प्रकार से श्राद्ध द्वारा हम अपने पूर्वजों को सम्मान व आदर देकर अपना आध्यात्मिक विकास करते हैं, उसी प्रकार श्रद्धा भी हमारे जीवन में विशेष महत्व रखती है, आत्मिक प्रगति के लिए श्रद्धा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।श्रद्धा मनुष्य को ‘स्व’ के सीमित भाव से ऊपर उठाती है। यह भाव एक बच्चे का अपने माता-पिता के प्रति, एक शिष्य का अपने गुरु के प्रति और मनुष्य का अपने दिवंगत पूर्वजों के प्रति आजीवन बना रहता है। श्रद्धा में इतनी शक्ति होती है, कि वह पत्थर को देवता बना देती है और मनुष्य को नर से नारायण। श्रद्धा मात्र चिंतन या कल्पना मात्र नहीं होनी चाहिए, सामान्य जीवन में उसके प्रत्क्षय प्रमाण भी जैसे उदारता, करुणा, सेवा आदि के रूप में परिलक्षित होनी चाहिए। यह मात्र चिंतन का ही विषय नहीं, बल्कि परमार्थपरक कार्यों में भी परिणत होनी चाहिए, यही सच्चे अर्थों में श्राद्ध है।
आधुनिक समाज में ‘श्राद्ध’ के प्रति हमारी श्रद्धा कम होती जा रही है।युवा पीढ़ी इसे बाह्य आडंबर, अंधविश्वास व पाखंड आदि के रूप में परिभाषित करती है। उसके अनुसार जो व्यक्ति मर गए हैं, वो कहीं और जन्म ले चुके होंगे, वे पितृपक्ष में किसी रूप में हमारे पास कैसे आ सकते हैं। हमारे द्वारा तर्पण की गई वस्तुएं जैसे-जलांजलि, पुष्पांजलि, भोज्य पदार्थ, धूप, दीप आदि उन तक कैसे पहुंच सकते हैं ? ऐसे तमाम प्रकार के प्रश्नों से जूझती युवा पीढ़ी श्राद्ध कर्म पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। यह स्वाभाविक प्रश्न भी है, क्योंकि आधुनिकीकरण के युग में हम भौतिकवादी होते जा रहे हैं।हमने अपने बच्चों को अपनी संस्कृति, सभ्यता और धर्म को पाखंड का नाम देकर उन्हें संस्कारित करना छोड़ दिया है, जबकि गहराई से सोचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार हम अपने देवताओं, ऋषि-मुनियों, महापुरुषों और पूजनीय पूर्वजों की जयंती धूमधाम से मनाते हैं, उनका गुणगान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, उनके विचारों, चरित्र और कार्यों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। ठीक उसी प्रकार हमें अपने पूर्वजों के प्रति भी श्रद्धा अर्पित करने में क्या बुराई है। हमारे पूर्वज, घर के बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, जो परिवार का हिस्सा रहे हैं, जिनका खून हमारी रगों में है, जिनके होने से ही हमारा अस्तित्व है। यदि श्राद्ध द्वारा हम उनके प्रति कृतघ्न होते हैं, उन्हें स्मरण कर आदर और सम्मान देकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, तो हमारा ही आत्मिक विकास होगा। इस दुर्लभ मनुष्य जीवन पर उनका ऋण हमारे ऊपर है, उनके द्वारा बनाई धरोहर से हमारा अस्तित्व खड़ा है। हम उनके ऋणी हैं, उसको चुकाने का ही दूसरा उपाय श्राद्ध कर्म है। पूर्वजों द्वारा प्रदत्त संसाधनों को हम दान देकर, गरीबों को भोजन कराकर और अपने संसाधनों का एक अंश उनके निमित्त कार्यों में लगाने से लोक कल्याण का प्रयोजन भी सिद्ध होता है। सच्चे अर्थों में यही असली श्राद्ध है, और पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता भी। श्रद्धा से आत्मा ही नहीं, बल्कि समाज और परिवार भी एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं।