कपिल देव अग्रवाल
बड़ौदा (गुजरात)
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उपस्थित प्रबुद्धजनों के भीतर की चेतना को मेरा नमन। युवावस्था में ही कुछ अतीन्द्रिय अनुभवों ने मेरी रूचि को आध्यात्म की ओर मोड़ दिया, जो आज तक कायम है। आध्यात्म जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया और इसे मैंने जाना व अनुभव किया। इसलिए आज आध्यात्म के प्रचारक की तरह खुद को प्रेषित करता हूँ। वास्तविकता यह है कि, अपने जीवन के अनुभवों को बाँटता हूँ।
हमारे पुराणों में मनुष्य जीवन और शरीर पाना बहुत सौभाग्यशाली माना गया है। कहते हैं देवता भी इस सौभाग्य को तरसते हैं। फिर भी आजकल अधिकतर लोगों को अपने जीवन से परेशान ही देखा। जिसे देखो वह तनाव में, कुंठा में है, अशांत है, विचलित है, अनिश्चय और असमंजस की स्थिति में है। इससे पलायन की सोच आने लगती है। आत्मघात तक की ओर व्यक्ति अग्रेषित होने लगता है। शान्ति की खोज में भटक रहा है। ऐसा क्यों है ? पुराणों की बातें तो गलत नहीं हो सकती, शायद हम ही कहीं गलत हो सकते हैं।
इसकी कई वजहों में एक वजह, जो मुझे समझ आती है उसे देखते हैं। आपको अपने बचपन की ओर ले चलता हूँ। हमने ४ वर्ष की उम्र से पंडित जी के विद्यालय में जाना शुरू कर दिया था। छोटा-सा १ कमरे का मकान और उसके बाहर बरांडे में शाला। ६ वर्ष की उम्र में शाखा (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) में जाना शुरू कर दिया, वहीं १० वर्ष की बाली उम्र में जिला गीत प्रमुख बना दिए गए। अंदाज लगाइए, कितना उत्साहित जीवन रहा होगा, कितना चैतन्य और प्रफुल्लित। हम ही नहीं, सभी का यही हाल था। उन दिनों हम सबमें एक बात सामान्य थी कि, कोई भी काम करना होता था उसके बारे में पहले पूरी जानकारी पहले आवश्यक थी, छानबीन की जाती थी। यह जरूरी भी था। ३ प्रश्न-क्या है ? क्यों करना है, या करना क्यों चाहिए, जरूरी भी है या नहीं। फिर कैसे करना है। इसी तरह का वातावरण था और सभी के स्वभाव में यह बात थी। उसके बाद उस काम को करने में कोई दिक्कत नहीं। परिणाम जो भी हो, अपने किए पर भरोसा होता था, संतोष होता था।
हमें लगता है इन ३ प्रश्नों का महत्व उन दिनों के सन्दर्भ में आज कहीं अधिक है। आज इस स्वभाव की कमी है। शायद यह भी एक मुख्य कारण हो सकता है हमारे विकल होने का। क्या, क्यों और कैसे ? आजकल हमें, खासकर हमारे युवा को बहुत जल्दबाजी है। पहले २ प्रश्नों को तो छोड़ ही देते हैं, समय नहीं है। सीधे तीसरे पर-कैसे पर आते हैं और बस करना शुरू कर देते हैं और परिणाम ज्यादातर संतोषजनक नहीं होते। फिर हम या तो काम, या दूसरों में दोष ढूँढने लगते हैं। अपने भाग्य को कोसने लगते हैं। उलझन में फंस जाता है मनुष्य। किसी ने पूजा-पाठ बताया, शुरू हो गए। वहाँ भी संयम कहाँ है ? अगरबत्ती जला दी, दीपक भी चाहा तो जला दिया, हाथ जोड़ लिए बस। ध्यान बता दिया किसी ने, करने बैठ गए। वह भी बिना जाने-समझे। योग करने लगे और उसके बारे में भी कुछ नहीं पता | जिसने जैसा बता दिया बस…।
‘सुबह होती है, शाम होती है,
जिन्दगी यूँ ही तमाम होती है।’
नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसा ही हो रहा है। हमें कुछ तो करना होगा, सोचना होगा, जागरूक बनना पड़ेगा। इन ३ प्रश्नों को जीवन में समायोजित करना होगा। विवेचना की आदत डालनी होगी। कुछ समय खुद के साथ रहने का नियम बनाना होगा।
एक बड़ा सत्य यह भी है कि, जब इंसान स्वयं की विवेचना करता है, तब दूसरों में दोष निकालना बंद कर देता है।
हम यह जीवन इस शरीर के माध्यम से ही तो जीते हैं। क्या जानते हैं हम इस शरीर के बारे में ? इसकी संरचना के बारे में ? भौतिक शरीर के बारे में भावी चिकित्सकों को पढ़ाया जाता है, परन्तु इसके आध्यात्मिक स्वरुप को कोई नहीं बताता।
आइए, फिलहाल इसके १ मुख्य भाग पर, सिर के भाग की बात करते हैं। क्या हमें पता है कि, हमारा जीवन संवेदनाओं से संचालित होता है ? ये संवेदनाएं मस्तिष्क की तरंगों से उत्पन्न होती हैं और ये तरंगें मस्तिष्क में उस सूक्ष्म ध्वनि की तरंगें हैं, जिन्हें ‘साउंड आफ साईलेंस’ कहते हैं। शून्य की आवाज, नाद ब्रह्म्म्म। अनाहत नाद, यानि ‘ॐ’। इस नाद को समझाने के लिए एक प्रयोग करें-अपने कान बंद कर लीजिए। बाहर की कोई आवाज नहीं आनी चाहिए। अब सुनिए, यह जो नाद है यही है अनाहत नाद। शून्य की ध्वनि। हमारे मस्तिष्क के काम करने की भाषा भी यही है-ध्वनि और तरंगें (ईको एंड वाईब्रेशन)।
हमारे हाथ में १ पिन चुभी और तुरंत हमने हाथ हटा लिया तथा भूल गए। कैसे एक सेकण्ड के १५ वे भाग में सूचना गई, निर्देश भी आ गया कि, हाथ हटाओ और क्रिया भी हो गई, हाथ हटा भी लिया। क्या है इस सूचना तंत्र का माध्यम ? संचार का माध्यम क्या है ? आइए, ज़रा देखते हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि, हमारा जीवन इस मस्तिष्क से संचालित होता है और हमारी रीढ़ इस संचार पद्धति का मुख्य माध्यम है। यहीं से कई स्नायु शरीर के छोटे या बड़े, प्रत्येक अंग को, प्रत्येक भाग को सूचना से जोड़े रखते हैं।
हमारी इस खोपड़ी में एक यह मस्तिष्क (मन) होता है और दूसरा छोटा-सा विवेक (ब्रेन) भी होता है। मन को यदि हम ‘हार्ड डिस्क’ कहें और ब्रेन को ‘मदर बोर्ड’, तो शायद ठीक ही होगा समझाने के लिए। इस मस्तिष्क या मन में, कहते हैं करीब ७ करोड़ बहुत ही बारीक धागे (ऊतक) होते हैं, जो हमेशा तरंगित होते रहते हैं। बहुत चंचल होता है यह मन। इन तरंगों में हर समय विचार उत्पन्न होते रहते हैं। ज़रा अंदाज लगाइए, हर दिन करीब ५० हजार से ७० हजार विचार यहाँ जन्म लेते हैं। हमारी बुद्धि इन विचारों में अटक जाती है और वो मन के कामों में रुकावट डालने लगती है। कभी परम्पराओं की दुहाई देकर, कभी लोक-लाज, अच्छा-बुरा, मान-अपमान आदि का व्यवधान डालती ही रहती है। मन को मन का करने ही नहीं देती, दुश्मनों की तरह। ज़रा सोचिए, जब भी हमारे मन का कुछ हो जाता है, तो हमें बड़ा संतोष-सा लगता है। खुशी होती है, लेकिन यह बहुत कम ही होता है। अक्सर तो दुविधा ही बनी रहती है। हम अपने मन का कुछ कर ही नहीं पाते। मन भी तो इधर-उधर भटकता और भटकाता ही रहता है। हमें मन के इस भटकाव को, अनियमित विचारों पर अंकुश लगाना चाहिए। मन के मालिक हम हैं, मन हमारा मालिक नहीं है। यदि हम इस मन को उचित दिशा-निर्देश देना सीख लें, तो यह आज्ञाकारी पुत्र की तरह उसे मानने लगता है। फिर बुद्धि भी उसका साथ देने लगती है। इसे मन और इन्द्रियों पर लगाम लगाना कहते हैं।
एक उदाहरण देखिए-महाभारत के युद्ध का एक दृश्य बहुत प्रचलित है-भगवान कृष्ण का सारथी के रूप में अर्जुन के रथ पर होना और अर्जुन को दिशा-निर्देश देते रहना। अर्जुन के रथ पर ५ घोड़े थे और उनकी लगाम कृष्ण के हाथ में थी। तभी विजय श्री प्राप्त हुई। अर्जुन, यानी मन, ५ घोड़े अर्थात ५ इन्द्रियाँ, सबकी लगाम कृष्ण यानी चेतना के हाथ। जब भी ऐसा होता है, जीत निश्चित हो जाती है।
यदि पहले दो प्रश्नों का उत्तर ढूँढ कर कार्य करेंगे, तब हमें हमारे पुरुषार्थ पर भरोसा होगा। मन प्रफुल्लित होगा, परिणाम की चिंता नहीं होगी, बस संतोष होगा। फिर यह दुःख, संताप कहाँ ठहर पाएगा। असंतोष की कोई वजह ही नहीं। हमें समझ आ ही जाएगा कि, हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, विधि-हाथ। इस विषय को कभी विस्तार से समझेंगे तो आनंद आएगा।
(प्रतीक्षा कीजिए अगले भाग की…)
