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जूते की महिमा

डॉ. प्रताप मोहन ‘भारतीय’
सोलन (हिमाचल प्रदेश)
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बचपन में हमें बताया गया था कि जूता पैर में पहनना जरूरी है, क्योंकि जूता पैर की सुरक्षा करता है। कुछ बड़े होने पर जब हम घर में कोई काम नहीं करते थे, या बड़ों का कहना नहीं मानते थे, तब ये आवाज सुनाई देती थी-‘जूते खाने हैं क्या ?”
यानी पहनने से अब जूता खाने की वस्तु हो गया। कभी-कभी नया जूता लेने पर जूता काटता भी है। जूता न हो कि कोई इंसान हो जो काटने भी लगा है।
जब मूर्ख सम्मेलन होता है तो उसने जो मूर्खाधिराज चुना जाता है, उसका सम्मान भी जूते की माला पहना कर करते हैं। यहाँ देखिए, जूते सम्मान करने के लिए उपयोग में आ रहे हैं। अक्सर भाषण देते हुए नेताओं को कभी- कभी जनता जूता फेंक कर मारती है। अक्सर हम ऐसा देखते हैं या समाचार पत्र में पढ़ते हैं। यहाँ पर जूते ने एक शस्त्र का रूप धारण किया है, जिससे हम विरोधी पर वार करते हैं।
जूता काटता है, आवाज करता है, खाना भी पड़ता है यानी भूख भी मिटाता है। इसके अतिरिक्त फुटबाल के खेल में सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी को ‘गोल्डन बूट’ याने ‘सोने का जूता’ ईनाम में दिया जाता है। जब भी किसी व्यक्ति को मिर्गी का दौरा आता है, तो उसे जूता सुंघाया जाता है। जूता सूंघने के बाद वह होश में आ जाता है। यहाँ जूता औषधीय उपयोग में आता है।
शादी के अवसर पर सालियाँ जीजा जी का जूता चुराती है, अर्थात जूते का अपहरण करती हैं और उसके एवज में फिरौती (रुपए) मांगती है। यह परम्परा तो प्राचीन काल से चली आ रही है, अर्थात यहाँ जूते से रुपए कमाए जा रहे हैं।
जब भगवान श्री राम को वनवास मिला, तब उनके छोटे भाई भरत ने उनकी खड़ाऊ (आज की भाषा में जूते) को सिंहासन पर रखकर राज किया। यहाँ जूते ने शासक का कार्य किया है। जूते का प्रयोग आजकल खिलौनों में, चाबी के छल्ले एवं मोबाइल स्टैंड के रूप में भी किया जा रहा है।

सबसे महत्वपूर्ण कि बात जूता नज़र उतारने के भी काम आता है।अक्सर हमने देखा होगा, कि ट्रक के सामने वाले भाग पर जूता टंगा रहता है और लिखा होता है ‘बुरी नजर वाले की सेवा में’ इस प्रकार आप जूतों को सुरक्षा, औषधि, सम्मान, अर्थव्यवस्था और फेंककर अपमान करने के लिए प्रयोग कर सकते हैं।

परिचय-डॉ. प्रताप मोहन का लेखन जगत में ‘भारतीय’ नाम है। १५ जून १९६२ को कटनी (म.प्र.)में अवतरित हुए डॉ. मोहन का वर्तमान में जिला सोलन स्थित चक्का रोड, बद्दी (हि.प्र.)में बसेरा है। आपका स्थाई पता स्थाई पता हिमाचल प्रदेश ही है। सिंधी,हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाले डॉ. मोहन ने बीएससी सहित आर.एम.पी.,एन. डी.,बी.ई.एम.एस., एम.ए., एल.एल.बी.,सी. एच.आर.,सी.ए.एफ.ई. तथा एम.पी.ए. की शिक्षा भी प्राप्त की है। कार्य क्षेत्र में दवा व्यवसायी ‘भारतीय’ सामाजिक गतिविधि में सिंधी भाषा-आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का प्रचार करने सहित थैलेसीमिया बीमारी के प्रति समाज में जागृति फैलाते हैं। इनकी लेखन विधा-क्षणिका, व्यंग्य लेख एवं ग़ज़ल है। कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन जारी है। ‘उजाले की ओर’ व्यंग्य संग्रह प्रकाशित है। आपको राजस्थान से ‘काव्य कलपज्ञ’,उ.प्र. द्वारा ‘हिन्दी भूषण श्री’ की उपाधि एवं हि.प्र. से ‘सुमेधा श्री २०१९’ सम्मान दिया गया है। विशेष उपलब्धि-राष्ट्रीय अध्यक्ष (सिंधुडी संस्था)होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-साहित्य का सृजन करना है। इनके लिए पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद एवं प्रेरणापुंज-प्रो. सत्यनारायण अग्रवाल हैं। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“हिंदी को राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान मिले,हमें ऐसा प्रयास करना चाहिए। नई पीढ़ी को हम हिंदी भाषा का ज्ञान दें, ताकि हिंदी भाषा का समुचित विकास हो सके।”