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जो दर्द मिला, मन उबर न पाएगा

दीप्ति खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
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बादल गरजे पानी बरसा,
पर इस बार था मंजर डर का
नदियों में बस धाराएं नहीं थी,
इनमें थी प्रलय की परछाई।

नदियाँ बनी कहर की मूरत,
बहा ले गईं अमन और चैन
खेत बने हैं जल का दरिया,
अब स्वप्न विहीन रीते-रीते हैं नैन।

जिस आँगन में गूँजती थी हँसी,
वहाँ अब बस पानी-पानी है
सहमा-सहमा सा आलम है,
मानों हुई दुनिया वीरानी है।

उजड़ गए कई परिवार,
बाढ़ की दुखद त्रासदी में
धन-संपत्ति की क्या बात करें,
रोटी तक बह गई पानी में।

अब आँखों में बस एक ही आस,
मदद का कोई हाथ बढ़ाए
भूख, प्यास और बेबसी से,
कोई तो आकर निजात दिलाए।

बारिश जब होगी बंद,
सूरज फिर मुस्काएगा।
इस विभीषिका से जो दर्द मिला,
मन उससे उबर न पाएगा॥