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झुलसती संवेदनाएं और नाकाम व्यवस्था

ललित गर्ग

दिल्ली
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एक बार फिर एक भीषण आग ने २५ मासूम जिंदगियों को छीन लिया। गोवा के नाइट क्लब में हुई यह त्रासदी केवल आगजनी नहीं, बल्कि हमारे तंत्र की जड़ता, गैर-जिम्मेदारी और नैतिक पतन की ज्वलंत मिसाल है। जो क्लब आग की चपेट में आया, वह नियमों की अनदेखी करके तो चलाया ही जा रहा था, उसमें आग से बचाव के उपाय भी नहीं थे। रही-सही कसर इससे पूरी हो गई कि आने और जाने का रास्ता बेहद संकरा था। आग की चपेट में आने वालों की संख्या इसलिए अधिक बढ़ गई, क्योंकि बचने के लिए उन्होंने जिस रास्ते को सुरक्षित समझा, वहाँ पहले से ही लोग फंसे थे। इस तरह से आनंद और उत्सव का स्थल अचानक जीवन समाधि में बदल गया, वह अनेक सवाल हमारे सामने खड़े करता है, क्या हम सीखने की क्षमता खो चुके हैं ? क्यों हर हादसे के बाद जाँच समितियाँ बनती हैं, मुआवजा घोषित होता है, कुछ दिन हंगामा होता है और फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाता है ? पूर्व में मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, सूरत और अनेक शहरों में समान दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। होटल, मॉल, थिएटर, अस्पताल, फैक्ट्री, कोचिंग सेंटर में लापरवाही की आग में झुलसनों वालों की संख्या बढ़़ी है, लेकिन हमारी संवेदनशीलता का स्तर छोटा होता जा रहा है। आगजनी की घटनाओं का सिलसिला तो लगातार है, परंतु सुरक्षा मानकों के प्रति हमारी उदासीनता और घोर लापरवाही भी उतनी ही स्थायी है। यह बात स्पष्ट है कि हादसे किसी तकनीकी गलती का परिणाम भर नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार और राजनीतिक मिली-भगत की देन भी हैं।

गोवा अपनी पहचान पर्यटन से बनाता है। ऐसे प्रदेश में इस प्रकार का हादसा केवल मानवीय त्रासदी नहीं, बल्कि छवि और अर्थव्यवस्था का गहरा नुकसान भी है। यह घटना विश्व के सामने एक सवाल बनकर खड़ी है-क्या भारत सुरक्षित पर्यटन देश है ? क्या यहाँ गैर-जिम्मेदाराना ढांचे और भ्रष्ट तंत्र के बीच किसी का जीवन सुरक्षित रखा जा सकता है ? इस प्रकार के हादसों में २ बड़े चरित्र सामने आते हैं-सरकार की सुस्ती और आयोजकों की लालचपूर्ण मानसिकता। अधिकांश नाइट क्लब, बार, पार्क या मनोरंजन स्थल ऐसे होते हैं, जहां प्रवेश शुल्क, अवैध संचालन और आर्थिक लाभ का बड़ा खेल चलता है। इमारतों की मंजूरी, फायर सुरक्षा की अनुमति, बिजली के तारों का रखरखाव, निकास मार्ग-ये सभी चीजें फाइलों में तो दर्ज होती हैं, लेकिन जमीन पर गायब रहती हैं। प्रशासनिक अधिकारियों की सजगता की जगह ‘संबंध’ और ‘सुविधा शुल्क’ काम करता है। निरीक्षण के नाम पर औपचारिकता ढहती है और बीते हुए हादसे केवल याद बनकर रह जाते हैं।
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर हम हादसों को नियति क्यों मान लेते हैं ? हर घटना के बाद नेताओं के बयान आते हैं-“दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा”, “उच्च स्तरीय जांच की जाएगी”, “मुआवजा दिया जाएगा”, लेकिन क्या कभी हमने दोषियों को सजा होते देखा है ? कभी किसी अधिकारी को बर्खास्त होते देखा है ? क्या किसी क्लब या होटल की अनुमति स्थायी रूप से रद्द की गई ? जवाब अधिकतर ‘नहीं’ है। यही वह सत्य है जो बताता है कि हमारा समाज हादसे को दु:ख तो मानता है, पर समस्या नहीं मानता। अजीब विडंबना यह है कि शिकार गरीब या आम नागरिक होते हैं, लेकिन इस त्रासदी से गुजरी व्यवस्थाओं को कोई चोट नहीं लगती। वे फिर उठते हैं, नए सजावटी बोर्ड लगा लेते हैं और जनता को फिर से आकर्षित कर लेते हैं। व्यवस्था में भ्रष्टाचार और मानव-मूल्यों का हृास दोनों मिलकर ऐसी घटनाओं को जन्म देते हैं। यह केवल प्रशासनिक नाकामी नहीं, बल्कि सामूहिक नैतिक हृास भी है। आयोजक केवल लाभ देखते हैं; प्रशासन केवल कागजों पर निशान देखता है; समाज घटना को क्षणिक दु:ख समझकर भूल जाता है।
वैश्विक स्तर पर देखें तो किसी भी विकसित या उत्तरदायी समाज में जन-स्थलों पर सुरक्षा सर्वाेच्च प्राथमिकता होती है। नियमित निरीक्षण, कठोर दंड, मानकों का अनिवार्य पालन और पारदर्शिता बुनियादी तत्व हैं। भारत में ये मानक केवल कानूनी पुस्तकों में रहते हैं। सवाल यह नहीं, कि हादसे क्यों होते हैं, सवाल यह है कि सीख क्यों नहीं ली जाती। यह हादसा एक चेतावनी है, अकेले गोवा के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए। हम विकास, पर्यटन और आधुनिक जीवन-शैली की बात करते हैं, लेकिन सुरक्षा, नियंत्रण व मानवीय संवेदनशीलता को हाशिए पर छोड़ देते हैं। यह घटना बताती है कि यदि व्यवस्था की लापरवाही और लालच के बीच नागरिक की सुरक्षा कुचलती रही तो हम आधुनिक ढांचे बनाकर भी असुरक्षित रहेंगे। किसी भी राष्ट्र की उन्नति उसके नागरिकों की सुरक्षा पर टिकी होती है, न कि केवल चमक-दमक पर।
गोवा के जीडीपी में पर्यटन का हिस्सा १६ प्रतिशत से ज्यादा है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, पिछले साल की तुलना में इस साल जनवरी से सितंबर के बीच ६.२३ प्रतिशत ज्यादा पर्यटक गोवा पहुंचे। ऐसे में यह घटना राज्य की अच्छी छवि पेश नहीं करती, जहां पहले ही टैक्सी चालकों की मनमानी और पर्यटकों के साथ अभद्रता की कुछ समस्या रही है। यदि घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकनी है तो कुछ कठोर कदम उठाने होंगे, जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई, वास्तविक निरीक्षण प्रणाली, भ्रष्टाचार पर अंकुश और सुरक्षा मानकों के उल्लंघन पर दंड लागू करना होगा, परंतु दु:ख यह है कि हमारा इतिहास बताता है, हम कठोर कदम उठाने से बचते हैं। आज इस त्रासदी के बाद शोक जताना पर्याप्त नहीं है, गंभीर चिंतन जरूरी है। हम केवल जिम्मेदारी टाल देने की प्रवृत्ति में नहीं जी सकते। हर हादसा हमें यही याद दिलाता है कि सुरक्षा संस्कृति, जिम्मेदार शासन और नैतिक व्यवसायिक आचरण के बिना कोई भी समाज सुरक्षित नहीं हो सकता। यह घटना केवल २५ लोगों की मौत नहीं, बल्कि चेतावनी है कि यदि हमने नहीं सीखा, तो अगली त्रासदी निकट ही खड़ी है।
हमारे नीति-नियंताओं को यह समझना होगा कि इस तरह की घटनाएं केवल जान-माल को ही क्षति नहीं पहुंचातीं, बल्कि देश की बदनामी भी कराती हैं। जब तक हमारी नीतियों में कठोरता नहीं आएगी, भ्रष्टाचार की जड़ें नहीं काटी जाएंगी और नागरिक-केंद्रित शासन स्थापित नहीं होगा, तब तक मनोरंजन के नाम पर मौतें होती रहेंगी। गोवा का हादसा केवल आग नहीं-हमारे विवेक, शासन और मानवता की विफलता है। अब यह हमारे हाथ में है कि हम इसे भूलें या इसे परिवर्तन की शुरुआत बनाएं।