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तने हुए लोग… क्यों ??

सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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नहीं अच्छा लगता…बाण पर कसे तीर जैसे हमेशा कसे हुए रहना। हर वक्त बेवजह चौकस तने हुए रहना, जैसे बस अभी ही युद्ध छिड़ने वाला हो… जैसे आज ही प्रलय आ जाएगा, जैसे पूरे देश का खर्चा-पानी यही चला रहे हैं। क्यों लोग खिलखिलाकर हँसने को शिष्टाचार के ख़िलाफ़ समझते हैं…? क्यों खुद आगे बढ़कर किसी से बात करने में अपनी तौहीन समझते हैं…? अनजान तो दूर की बात है, क्यों किसी जाने-पहचाने को देखकर भी एक छोटी-सी अपनत्व भरी मुस्कान नहीं देते…? आखिर स्वयं का अकेलापन दूर करने के लिए क्यों एक छोटी-सी पहल नहीं करते…? क्यों किसी इंसान की ओर मित्रवत नज़र उठाकर नहीं देखते…?

ये कोई हिचक है या अहंकार है…?? क्या ये कभी धरती से बिदा नहीं होंगे…? क्या अमरत्व प्राप्त कर आए हैं…? जब राजा, राणा, छत्रपति, चक्रवर्ती सम्राट अपने सिंहासन छोड़ मिट्टी में विलीन हो गए, तो ये किस मुगालते में जी रहे हैं… समझ में नहीं आता। कभी-कभी लगता है, कि स्वयं नहीं जानते कि ये अपना कितना अहित कर रहे हैं… जिसे गर्व समझ रहे हैं, वो कितने नादान हैं। इतनी बड़ी हैसियत और ऐसी लायक उपाधियाँ भी इन्हें जीवन की अनमोलता समझाने में असमर्थ रही है। मैं… मैं… का राग इन्हें अकेलेपन की ओर धकेलता चला जा रहा है और ये आँखें बंद कर आभासी सिंहासन पर अभिमान से शेख चिल्ली बने बैठे हैं।

इंसान के सुंदर गुण… सरलता को त्यागकर जटिल ज़िंदगी अपनाने की जैसे होड़ लगी हुई है। बात न करना पड़े, इसलिए महफ़िल में किसी से नजरें तक मिलाने से लोग परहेज करने लगे हैं। स्वभाव ही ऐसा है या इन्हें किसी की आवश्यकता नहीं है। कब किसी सुदृढ़ मित्र-मंडली से उठाकर बाहर फेंक दिए जाएंगे, पता भी न चलेगा। इनकी वक्र भौंहें, तना हुआ शरीर नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देता है। इनके वक्र मुख की प्रत्येक रेखा मुख-मुद्रा को और कठोर करने में तत्पर लगी रहती है। मानव के ऐसे स्वयंभूत स्वभाव को दूर-दूर से प्रणाम।
सदा याद रखिए-
लचकती डालियाँ तूफ़ान सह जाती है,
तने हुए पेड़ को धराशाई होते देखा है।