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तीर्थ को पर्यटन स्थल न बनने दें

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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वर्तमान में कई प्रांतों की सरकारों ने तीर्थ स्थलों को पर्यटन स्थल घोषित किया है, जिससे तीर्थ स्थलों की पवित्र पर प्रश्न चिन्ह उठते हैं। कारण कि, तीर्थ स्थल शुचिता और पवित्रता का स्थल होता है, जबकि पर्यटन मस्ती का स्थल बन जाता है, जहाँ पर शराब, कबाब और शबाब का चलन होने से पवित्रता ख़तम हो जाती है। इस बात पर चिंतन जरुरी है। जहाँ पांच सितारा होटल बनेगी, वहां पर सब प्रकार के अनैतिक कार्यों का होना अनिवार्य तो नहीं, पर रोक नहीं सकते।
जैनाचार्यों ने तीर्थ की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डाला है। ‘तीर्थ’ शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करते हुए कहा गया है-‘तीर्यते अनेनेति तीर्थ:’ अर्थात् जिसके द्वारा पार हुआ जाता है, वह तीर्थ कहलाता है। इस प्रकार सामान्य अर्थ में नदी, समुद्र आदि के वे तट जिनसे पार जाने की यात्रा प्रारम्भ की जाती थी, तीर्थ कहलाते थे। इस अर्थ में जैनागम जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति में मागध तीर्थ, वरदाम तीर्थ और प्रभास तीर्थ का उल्लेख मिलता है।
लाक्षणिक दृष्टि से जैनाचार्यों ने तीर्थ शब्द का अर्थ लिया-“जो संसार समुद्र से पार कराता है, वह तीर्थ है और ऐसे तीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थङ्कर है।” संक्षेप में मोक्ष-मार्ग को ही तीर्थ कहा गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि, जैन परम्परा में तीर्थ शब्द केवल तट अथवा पवित्र या पूज्य स्थल के अर्थ में प्रयुक्त न होकर एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तीर्थ से जैनों का तात्पर्य मात्र किसी पवित्र स्थल तक ही सीमित नहीं है। वे तो समग्र धर्ममार्ग और धर्म-साधकों के समूह को ही तीर्थ-रूप में व्याख्यायित करते हैं। तीर्थ धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व वाले स्थानों को कहते हैं, जहाँ जाने के लिए लोग लम्बी व अक्सर कष्टदायक यात्राएँ करते हैं।
भारत की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने हेतु आदि शंकराचार्य ने भारत की ४ दिशाओं में ४ धामों-उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूरब में जगन्नाथपुरी एवं पश्चिम में द्वारका की स्थापना की।हिन्दुओं के चार धाम हैं। पूर्व में हिन्दू इन धामों की यात्रा करना अपना पवित्र कर्तव्य मानते थे।
यदि शास्त्र-प्रवचन, तत्व-चर्चा, प्रभु-पूजन, कीर्तन, सामयिक प्रतिक्रमण या विधान-प्रतिष्ठोत्सव आदि धार्मिक प्रसंग हों तो जन-संसर्ग अनर्थ का कारण नहीं है, क्योंकि वहाँ सभी का एक ही उद्देश्य होता है-धर्म-साधना, किन्तु जहाँ जनसमूह का उद्देश्य धर्म-साधना न होकर सांसारिक प्रयोजन हो, वहाँ जन-संसर्ग संसार-परम्परा का ही कारण होता है। तीर्थ क्षेत्रों पर जनसमूह एकत्रित होता है, और उस समूह में कुछ तत्व ऐसे हों जो सांसारिक चर्चाओं एवं अशुभ रागवर्धक कार्यों में रस लेते हों तो ऐसे तत्वों के संपर्क से यथासंभव बचने का प्रयत्न करना चाहिए, तथा अपने चित्त की शांति और शुद्धि बढ़ाने का ही उपाय करना चाहिए। यही आंतरिक शुद्धि कहलाती है। तीर्थ-क्षेत्रों पर जाकर गंदगी नहीं करनी चाहिए। बच्चों को भी यथास्थान ही बैठना चाहिए। दीवालों पर अश्लील वाक्य नहीं लिखने चाहिए और रसोई यथास्थान करनी चाहिए। सारांश यह है कि, तीर्थों पर बाहरी सफाई का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए।
ऐसे ही महिलाओं को विशेष ध्यान रखना चाहिए कि, मासिक-धर्म के समय मन्दिर, धर्म-सभा, शास्त्र-प्रवचन, प्रतिष्ठा-मण्डप आदि में नहीं जाना चाहिए।
जब तीर्थ-क्षेत्र के दर्शन के लिए जाएं, तब जहाँ से मन्दिर का शिखर दिखाई देने लगे, वहीं से ‘कोई विनती’ अथवा ‘कोई स्तोत्र’ बोलते जाना चाहिए। अथवा अन्य लोगों के साथ धर्म-वार्ता और धर्म-चर्चा करते जाना चाहिए, साथ ही क्षेत्र और मन्दिर में विनय का पूरा ध्यान रखना चाहिए। इससे तीर्थ पर दर्शन में मन लगता है और प्रेरणा और उल्लास जाग्रत होता है।
एक निवेदन और कि, भगवान के समक्ष जाकर कोई मनौती नहीं माँगनी चाहिए, कोई कामना लेकर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि निष्काम भक्ति सभी संकट को दूर करती है। स्मरण रखना चाहिए कि, भगवान से सांसरिक प्रयोजन के लिए कामना-भक्ति नहीं होती है। भक्ति निष्काम होती है, निदान सकाम होता है।
आस्था और शुचिता को बरकरार रखने के लिए बहुत से तीर्थस्थलों में तमाम पाबंदियां एवं आचार संहिताओं पर भी जोर दिया जाता है। इसमें तिरुपति बालाजी से लेकर श्री सम्मेद शिखरजी, केदारनाथ, बद्रीनाथ, मक्का , वेटिकन सिटी जैसे तमाम तीर्थ शामिल हैं, जहां तय अनुशासन का पालन करना ही होता है। पर्यटन स्थल का तमगा पाए स्थलों में शुचिता की जगह लोग एक अलग तरह के आनंद, मौज-मस्ती और मनोरजंन के तमाम तरह के साधन सुविधाएं ले लेते हैं, जिससे तीर्थ स्थल की गरिमा खराब होती है।
एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि, हम संसार में रहकर जितने पाप करते हैं, उनका तिरोहण तीर्थ क्षेत्र में होता है। तो जरा सोचिए कि यदि तीर्थ क्षेत्र में पाप किया तो निवारण कहाँ होगा ? कहीं नहीं।
इसीलिए कहते हैं-
‘मक्का गए मदीना गए,
बनकर आये हाजी।
न आदत गयी न इल्लत गयी,
फिर पाज़ी के पाज़ी॥’

यानी धर्मक्षेत्र में जितने निर्मल परिणाम होंगे, जितनी भावों की शुद्धि होगी, उतनी शांति और आत्म-कल्याण हो सकेगा।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।